Friday, 15 September 2017

बच्चे की शक्ल वाला दिलोदिमाग

हमें उस एक पल में जिंदगी की गंभीरता पर शक होने लगता है जब आस पास दिखने वाला कोई चेहरा अचानक से गायब हो जाता है । दूर बहुत दूर । अगले ही पल दुनिया के लिए, इसके स्वरूप के लिये हमारा नजरिया, हमारी सोच बिल्कुल अलग हो जाती । दिल और दिमाग एक बच्चे की शक्ल में ढल जाता है । जो सोते हुए भी आसपास अपनो का वजूद बनाये रखना चाहता है, माँ से चिपक के या पिता की उंगली पकड़ के ही सही ।
यह बच्चे की शक्ल वाला दिलोदिमाग हमें और करीब ला देता और हम एक दूसरे के लिए ऐसे सहारे बन जाते है जो हमें हौसला देता है, ढांढस बधाता है हर दर्द को सहने और हर सच्चाई की कड़वाहट को स्वीकारने का ।
और कहीं धूमिल होती मानवता चटक हो जाती, गहरे आसमान जैसी ।
~दीपक

Friday, 18 August 2017

आखिरी_आवाज

मुझे नहीं पता मेरे साथ क्या हो रहा था। बस बढ़ते एक एक पल के साथ मेरी परेशानियाँ बढ़ती जा रही थी । मुझे घुटन हो रही थी । मेरी साँस छूटती जा रही थी । मुझे याद है मैं अब छटपटाने लगा था ।
मेरे सामने अब भी वो लोग थे जिनमें मुझे इस वक्त मेरे भगवान दिख रहे थे ।
वो अब भी मुझे देख रहे थे । धीरे धीरे मैं और छटपटाने लगा । वो अब भी मुझे देखते रहे । मैं कुछ बोलना चाहता था , वो अब भी खड़े रहें मेरे करीब मुझे अकेला छोड़कर ; तभी मेरी साँस गले में कहीं अटक कर रह गयी और
अगले ही पल मुझे छुटकारा मिल गया । सारी परेशानियों से ....सारी छटपटाहट से ....सारे दुःखों से ....सारे दर्दों से । बस एक दर्द मुझे घेर कर बैठ गया । मुझे दुःख है कि भगवान का मुखौटा लगाए उन चेहरों से मैं बोल नहीं पाया .... ।
"भगवान तुम क्या बनोगे , पहले इंसान तो बन जाओ"

इजहार


चुपके से ही सही, छुप कर ही सही इजहार करना सभी एहसासों को जी लेने जैसा होता है ।
वो एहसास जो होठों पर एक हल्की मुस्कान बिखेरने की ताकत रखते है । वो एहसास जो आपको जिंदगी के रंगों को तलाशने पर मजबूर कर देते है । वो एहसास जिनमें बारिश की बूदें मोती बन जाती है । वो एहसास जिसके बाद अकेले में गुनगुनाने का हुनर आ जाता है ।
कभी अकेले में जब बादल आहिस्ता आहिस्ता नन्ही नन्ही बूदों को नीचे छोड़ रहे हो तो एक धीमी संगीत की धुन पर उससे कहना " मैं तुम्हे प्यार करता हूँ"
उसी सादगी ईमानदारी और सच्चाई के साथ जो दिल की परतों में दबी बैठी है ।
सच कहता हूं समझ आ जायेगा कैसे एक ही पल में प्यार सब कुछ बदल देता है ।
पूरी दुनिया को रंगीन और खूबसूरत बना देता है ।
~दीपक

कहानी "मैं तुम और मेरी आखिरी साँस" का कुछ अंश

हर इंसान में कहीं न कहीं एक बचपना छिपा होता है । मेरे अंदर भी है ।
तुम मेरे करीब होते हो मैं अपनी 21 साल इस उम्र से सीधा बच्ची बन जाती हूँ । नटखट बच्ची । जिसे खेलने का जी करता है । जिसे तितलियां पकडना अच्छा लगता है । जिसे जिद करने में मजा आता है । जिसे रंग बिरंगे गुब्बारे अच्छे लगते है। जिसे खट्टे-मीठे गोलगप्पे पसंद है ।
और तुम हो भी तो ऐसे; जो इतनी सहूलियत देते हो ।
मुझे देख कर सब समझ कैसे जाते हो । कब मुझे गोलगप्पे चाहिए कब आइस क्रीम ।कब चलती हुई बस में मुझे तुम्हारा कंधा चाहिए सुकून की नींद के लिये ।
पता है जब मैं हर तरफ फैली नकारात्मकता के अंधकार से डर जाती हूँ तो तुम मुझे उजाले की तरह संभाल लेते हो । तुम्हारी एक आवाज मुझमे न जाने कहाँ से इतना साहस भर जाती है । मुझमें ताकत आ जाती है भीड़ में सर उठाकर चलने की । किसी हमउम्र लड़के से आंख मिलाकर बात करने की ।
हर शाम जब तुम मुझे छोड़कर जाते हो तो मैं अगली आने वाली सुबह तक तुम्हारा इंतजार करती हूं । न जाने कितने लोग सुबह का इंतज़ार करते होंगे , उजाले की आस में ; मैं सुबह की राह ताकती हूँ ताकि फिर से तुम्हे देख सकूँ । तुम्हारे हथेलियों की पकड़ को महसूस कर सकूं , तुम्हारे मुस्कुराते चेहरे को निहार सकूँ ।
न जाने मुझे तुममे क्या दिखता है जिसपे बस प्यार आता है । जिसकी मुसकुराहट मुझे अंदर तक खुश कर देती है । सच बोलू मैं तुम्हे हमेशा खुश देखना चाहती हूं , चाहे उसकी कीमत कुछ भी हो ।
अब मैं सपने में भी तुमसे दूर नही होना चाहती । तुमसे दूर होने के खयाल से ही मेरी सासें फूलने लगती । जी घबराने लगता है ।मेरे लिए दुनिया अधूरी हो जाती है ।
ओहहो मैं भी क्या सोचने लगी ।
तुम मुझसे दूर क्यूँ जाओगे ।
नहीं जाओगे न !
(कहानी "मैं तुम और मेरी आखिरी साँस" का कुछ अंश )
~दीपक

Friday, 21 July 2017

भ्रम की गतियाँ..

सोचो अगर एक दिन के लिए हम सारी घड़ियों को बंद कर दें । डिजिटल एनालॉग सब । क्या उस एक दिन सब ठप हो जाएगा ? हम रात को सोयेंगे और सुबह जागेंगे नही । अखबार वाला सुबह अखबार नही देने नही आएगा । दूध वाला गेट पर आवाज नही लगाएगा। किसान खेत में काम को नही जाएगा मजदूर रोजी रोटी के इंतजाम में नही निकलेगा । नौकरी वाले लोग काम पर नही जाएंगे।
आप तुरंत जवाब दो या थोड़ा देर सोचकर मुझे पता है; आपका जवाब । आप कहेंगे ऐसा कुछ नही होने वाला ।
उदाहरण के तौर बोलेंगे पहले जब घड़ियां नही थी तब भी तो सब कुछ होता था उस एक दिन भी वैसे ही होगा ।
मुझे लगता है यह प्रकृति ही है या घूमती धरती की गति जो किसी न किसी तरह हमें अपनी गति से जोड़ कर रखती है और उस गति के सहारे हम चलते रहते हैं । सेकंड , मिनट , घण्टे, दिन , महीने और साल बीतते रहते हैं ।
कभी हम दौड़ते हैं तो हमें लगता है वक्त के हिसाब से हमारी रफ्तार तेज हो गयी और कभी चलते चलते हम रुक जातेहैं तो लगत है वक्त के हिसाब से हमारे गति शून्य हो गयी लेकिन सही मायनों में क्या सच में हम रुकते हैं ...वक्त अपने हिसाब से हमें बाधे चलता रहता है और हम भ्रम में अपनी गतियाँ निर्धारित करते हैं ।
~दीपक

कश्मकश ...

कश्मकश (Confusion) ज़िन्दगी का एक हिस्सा है; ऐसे ही जैसे चलना ।
हर सुबह उठने के बाद अगर आप चलना चाहते हैं तो कहीं न कहीं इनसे मुलाकात पक्की है । कश्मकश मोड़ जैसे होते हैं, जहां आपको फैसले लेने पड़ते है। हर ऐसे मोड़ पर आपको चुनना पड़ता है; कभी दो में एक तो कई बार कइयों में से एक । अपने चुनाव के ऊपर अगर आप पूरी तरह आश्वस्त है तो चलते रहना थोड़ा आसान हो जाता है लेकिन हर बार आप पूरी तरह अपने फैसले से आश्वस्त हो ये भी जरूरी नही है ।
अब दिक्कत ये है कि हम हर मोड़ पर ज्यादा वक्त जाया नही कर सकते ; आश्वस्त भी नहीं हैं और चलते भी रहना है । तो क्यों न ऐसे वक्त में मंजिल को याद करें ..मोड़
खुद -ब-खुद रास्ता सुझाएगा ..
~दीपक

Tuesday, 20 June 2017

बिखरा सुकून

कभी कभी बिन मतलब का एक टीस जेहन में घर बना लेता है । न जाने कहाँ से आया, न जाने किस जरिये से ।
मुझे बड़ा इंतजार था बारिश का , बारिश आएगी तो अपने साथ सुकून लाएगी ।
बारिश आयी , ठंडी हवाएं भी आई , तालाब से मेढक की आवाजें भी सुनाई देने लगी पर सुकून नहीं आया ।
कभी कभी ज्यादा इत्मीनान भी अजीब माहौल पैदा कर देता है । उलझन हो तो नींद नही आती पर इत्मीनान भी एक हद से ज्यादा हो तो नींद गायब हो जाती है ।
सुबह उठकर देखा तो हर तरफ पानी ही पानी बिखरा था । हाँ रात में तेज बारिश हुई होगी । मैने इस सोच पर इतना ध्यान नही दिया । मैं कहीं और खो गया । बारिश का पानी तालाब में बिखरा बिखरा सा लग रहा था । एक पल को बड़ी जोर का झटका सा लगा जैसे मैंने कुछ खो दिया हो । मैं पछताने की वजहें ढूंढने लगा । मैं तेज बारिश को देख कर खुश होना चाहता था ....बहुत खुश....। पर अभी मैं उन सारी वजहों से रूबरू होना चाहता था । हाँ हाँ याद आया बीती रात मैं थोड़ा जल्दी सो गया था । सुना है सोने से तो सुकून मिलता है । पर मेरे हिस्से का सुकून .....क्यूँ मेरे हिस्से का का सुकून अभी भी मुझे बिखरा बिखरा सा लग रहा था। क्यूँ ?
~दीपक

Saturday, 13 May 2017

आखिरी सासें

आज मेरे गमले के गुलाब ने आखिरी सासें ली । मुझे समझ नही आ रहा उसकी मुक्ति की खुशी मनाऊं या उसके साथ छोड़कर जाने का गम । गम में डूबकर जीना आसान होता है शायद । मुझे अच्छा लगा रहा है ..अंतिम वक्त में मैं उसके साथ नही था । मुझे उसकी खुशबू बहुत पसंद थी । मुझे उसे पानी देना अब अच्छा लगता वह सूख गया है अब । मुझे उसकी सिधाई पे दया आती ...कभी कभी मैं जोर जोर से हँसने लगता हूँ । अब मैं उसे याद नही करता , और अब वो मुझे पसंद नहीं करती ...ऐसा हम दोनो कई दिनों से एक दूसरे के लिए सोचने लगे थे ।
वो गुलाब को पानी देने आती थी । फिर एक दिन उसने आना बंद कर दिया ।
और फिर कबूतरों का आना भी बंद हो गया वही कबूतरों की जोड़ी जो मेरी खिड़की के उस पार बैठकर कहानियां सुनती थी ; इस शर्त पर की मैं दरवाजा न खोलूं ।
वो मेरी कहानी सुनने आते थे यह शायद मेरा भ्रम था कि है । ....अच्छा ...अच्छा अब समझ आया गुलाब ने इनसे दोस्ती कर ली थी ...चलो अच्छा ही हुआ सूख गया ....ओह ...रुको जरा ....आता हूँ...पानी डालने का वक्त हो रहा है ।
~दीपक

Thursday, 6 April 2017

जिन्दा लाशों का सच


हर सुबह जिन्दा लाशों
की बिखरी फ़ौजें
निकल पड़ती है
कुछ निवालों के खतिर
तो कुछ चंद सिक्कों की आस में
ये लाशें दिन भर भटकती है
अपने आप से लड़ती है
कभी आस्तित्व के लिए
कभी होने की वजह के लिए
ये ढूंढती है कुछ लम्हे ,कुछ साथ
जहाँ
ये पूरी तरह जीवित हो जाती है
फिर दिन भर बना रहता है
ये जीवित होने का झूठ
एक जाल की तरह
जिसमें कई परतें है
धन,परिवार, रिश्ते,धर्म
और मोह-माया का हर अंश
शाम ढलते ही
जब अँधेरा गहराता है
जब भागते कदमों की रफ्तार
थमने लगती है
तब नींद का आगोश
वापस
वापस जिन्दा लाश को
उसका सच याद दिलाता है
एक अधूरा सच
जो अगली सुबह
झूठ के आगोश में
कहीं गुम हो जाता है
आने वाले अंधकार तक के लिये.....
 
~दीपक

Monday, 30 January 2017

करीबी दूरियां



वह पास होकर भी इतनी दूर

जैसे सितारों की दुनिया

वह पहचानी भी, अनजानी भी

जैसे ख्वाबों की दुनिया



उसकी ख़ामोशी में अपने कुछ निशां ढूंढते

कुछ अनसुलझी पहेलियों की छोर ढूंढते

अपने आप से फिर वही सवाल पूछा है

क्यूँ घटती नही कुछ दिलों की दूरियां
Image Source : Web

बेबस मन को हर दफा कौन समझाए

कैसे बेचैनियों का दौर खो जाये

उसकी जिन्दगी में अपना वजूद ढूंढते

जमे अश्कों को ढरकाती हैं  “करीबी दूरियां”


~दीपक

Monday, 23 January 2017

What is permanent in life ??

Everything happens for a reason, people change so that you can learn to let them go . In reality every time its not easy to find a eraser so that you can redraw your surroundings .
many times it looks like very hard to suppress your urges , whom you are very used to. It's like your entire life revolved around that some peoples and it is not the same anymore. The only reason why it is so hard to forget is because we let go of people and not their memories, or the memories that we shared with them.
 Living in the past never helped anyone. Wasting time on people who are not a part of your life is not going to help you.Reliving shared memories never helped anyone. When you let go of someone, you got to let go of their memories.Learning to accept the fact that nothing is permanent neither relations , bonds, love, faith, nor even existence of humans.
But its true its impossible to forget the sensations in your nerves, in your heart, even in your mind who awesomely effected you beyond limits…..fully genuinely & honestly.
~Deepak K Tripathi

Sunday, 15 January 2017

“भाग्यशाली माँ है , या खुशनसीब हम ” ?



Image Source: Web
आज माँ की आवाज कुछ नए एहसासों से भरी हुई थी | माँ आज पूरे दिन व्रत रही है | मेरी अपने बच्चों की कुशलता के लिए | आज माँ की आवाज में मुझे ममत्व और अपनेपन के साथ संतोष और पूरेपन की झलक दिखी | ऐसा नहीं कि आज मै अपनी अटखेलियों से बाज आ गया और माँ से उसकी काल्पनिक बहू के बारे में बातें नहीं की पर आज बातों का सफ़र किसी और रास्ते मुड़ गया |
माँ ने कहा “बड़े इंतजार के बाद तुम मेरी दुनिया में आये हो बेटा ! मै बहुत भाग्यशाली हूँ”| मै बड़ी देर तक सोचता रहा ....कि “भाग्यशाली माँ है , या खुशनसीब हम ” ?
दोस्तों बचपन से सुनता आया हूँ “हमें भगवन ने बनाया है” | इस दुनिया ने अदृश्य भगवान और देवियों के लिए न जाने कितने व्रत और त्यौहार बनाये.. पर इस दृश्य भगवान और देवी के लिए कुछ नहीं ?
माँ –पापा को अपने किसी भी कार्य से कभी निराश मत करना दोस्तों ! हमारे द्वारा उन्हें दी गयी हँसी और खुशी ही सच्चे मायने में उनकी पूजा है |
  –दीपक

Thursday, 12 January 2017

खुद्दारी, अहम् और जिद की दीवार और पार तुम

ये खुद से लड़ने की शुरुआत हर रोज होती है जब तुम्हारी आवाज और हंसी इस जेहन में गूंजती है और चेहरा आस पास से होकर यूँ गुजरता है जैसे कोई पराया ख्वाब | मन को बांधना भी कितना कठिन है न , मन न जाने क्या खोजता है | उस पुराने वक्त में जाने से जी घबराता है और वर्तमान से मै भागता रहता हूँ | एक किसी पारदर्शी दीवार के उस पार खड़ा मै सब कुछ देखता हूँ, सुनता हूँ, ललचाता हूँ, दिल के उलाहने सुनता हूँ पर चाहकर भी उस पार नही जा पाता | कभी कभी मन करता है काश ये दीवार ईटों वाली होती, तो ये सब न दिखता नही;  पर एक रोज सपने में ईटों के दीवार के पार मेरी सासें फूलने लगी थी |



मुझे पता है ये दीवार मेरी खुद की बनायीं हुई है; खुद्दारी, अहम् और जिद के मसाले से पर तुमने भी तो इसे नजरंदाजी और रूखेपन के पानी से तरी कर दिन-ब-दिन और मजबूत किया है | मुझे अभी भी इंतजार है उस तूफ़ान, उस भूकंप, उस बारिश, उस सुनामी का जो इतना तेज होगा की इस दीवार को गिरा हमें फिर से करीब लायेगा | सच कहूँ तो मुझे डर लगता है दीवार की बढ़ती मजबूती देखकर | मुझमें आशा का एक छोटा सा दीपक भी अब जैसे आखिरी सासें ले रहा है |

~दीपक