Friday, 18 August 2017

कहानी "मैं तुम और मेरी आखिरी साँस" का कुछ अंश

हर इंसान में कहीं न कहीं एक बचपना छिपा होता है । मेरे अंदर भी है ।
तुम मेरे करीब होते हो मैं अपनी 21 साल इस उम्र से सीधा बच्ची बन जाती हूँ । नटखट बच्ची । जिसे खेलने का जी करता है । जिसे तितलियां पकडना अच्छा लगता है । जिसे जिद करने में मजा आता है । जिसे रंग बिरंगे गुब्बारे अच्छे लगते है। जिसे खट्टे-मीठे गोलगप्पे पसंद है ।
और तुम हो भी तो ऐसे; जो इतनी सहूलियत देते हो ।
मुझे देख कर सब समझ कैसे जाते हो । कब मुझे गोलगप्पे चाहिए कब आइस क्रीम ।कब चलती हुई बस में मुझे तुम्हारा कंधा चाहिए सुकून की नींद के लिये ।
पता है जब मैं हर तरफ फैली नकारात्मकता के अंधकार से डर जाती हूँ तो तुम मुझे उजाले की तरह संभाल लेते हो । तुम्हारी एक आवाज मुझमे न जाने कहाँ से इतना साहस भर जाती है । मुझमें ताकत आ जाती है भीड़ में सर उठाकर चलने की । किसी हमउम्र लड़के से आंख मिलाकर बात करने की ।
हर शाम जब तुम मुझे छोड़कर जाते हो तो मैं अगली आने वाली सुबह तक तुम्हारा इंतजार करती हूं । न जाने कितने लोग सुबह का इंतज़ार करते होंगे , उजाले की आस में ; मैं सुबह की राह ताकती हूँ ताकि फिर से तुम्हे देख सकूँ । तुम्हारे हथेलियों की पकड़ को महसूस कर सकूं , तुम्हारे मुस्कुराते चेहरे को निहार सकूँ ।
न जाने मुझे तुममे क्या दिखता है जिसपे बस प्यार आता है । जिसकी मुसकुराहट मुझे अंदर तक खुश कर देती है । सच बोलू मैं तुम्हे हमेशा खुश देखना चाहती हूं , चाहे उसकी कीमत कुछ भी हो ।
अब मैं सपने में भी तुमसे दूर नही होना चाहती । तुमसे दूर होने के खयाल से ही मेरी सासें फूलने लगती । जी घबराने लगता है ।मेरे लिए दुनिया अधूरी हो जाती है ।
ओहहो मैं भी क्या सोचने लगी ।
तुम मुझसे दूर क्यूँ जाओगे ।
नहीं जाओगे न !
(कहानी "मैं तुम और मेरी आखिरी साँस" का कुछ अंश )
~दीपक

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