Thursday, 12 January 2017

खुद्दारी, अहम् और जिद की दीवार और पार तुम

ये खुद से लड़ने की शुरुआत हर रोज होती है जब तुम्हारी आवाज और हंसी इस जेहन में गूंजती है और चेहरा आस पास से होकर यूँ गुजरता है जैसे कोई पराया ख्वाब | मन को बांधना भी कितना कठिन है न , मन न जाने क्या खोजता है | उस पुराने वक्त में जाने से जी घबराता है और वर्तमान से मै भागता रहता हूँ | एक किसी पारदर्शी दीवार के उस पार खड़ा मै सब कुछ देखता हूँ, सुनता हूँ, ललचाता हूँ, दिल के उलाहने सुनता हूँ पर चाहकर भी उस पार नही जा पाता | कभी कभी मन करता है काश ये दीवार ईटों वाली होती, तो ये सब न दिखता नही;  पर एक रोज सपने में ईटों के दीवार के पार मेरी सासें फूलने लगी थी |



मुझे पता है ये दीवार मेरी खुद की बनायीं हुई है; खुद्दारी, अहम् और जिद के मसाले से पर तुमने भी तो इसे नजरंदाजी और रूखेपन के पानी से तरी कर दिन-ब-दिन और मजबूत किया है | मुझे अभी भी इंतजार है उस तूफ़ान, उस भूकंप, उस बारिश, उस सुनामी का जो इतना तेज होगा की इस दीवार को गिरा हमें फिर से करीब लायेगा | सच कहूँ तो मुझे डर लगता है दीवार की बढ़ती मजबूती देखकर | मुझमें आशा का एक छोटा सा दीपक भी अब जैसे आखिरी सासें ले रहा है |

~दीपक   

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