Saturday, 28 December 2019

नासमझी के शिकार रिश्तें ...

आज Aiims आया था । कुछ दिनों पहले भी आया था । दिल्ली Aiims का मेट्रो स्टेशन, Ina के बाद पड़ता है । जब भी मैं इधर से गुजरता हूँ वो, उसकी ढेर सारी यादें अगले कई दिनों तक मुझे घेरे रहती है । इस बार भी मैंने फ़ोन निकाला उसका नम्बर कांटेक्ट लिस्ट से सर्च जैसे हर बार करता हूँ लेकिन हिम्मत इस बार भी नहीं हुई या सच कहूं तो इस बार भी बड़ी कठिनाई से खुद को रोक पाया । इस तरह मुझे खुद को रोक पाना बहुत कठिन लगता है । कॉलेज के शुरुआती दिनों में हम बहुत दिनों तक एक दूसरे को देखते, जानते रहे लेकिन कभी हमारी बात नहीं हुई । एक रोज उसके पहल पर हम बात भी करने लगे । लेकिन दोस्त शायद हम अब भी नहीं थे पर बीतते वक्त के साथ कड़ियाँ जुड़ती गयी और हम अच्छे दोस्त बन गए । कुछ और कॉमन दोस्तों के साथ जब हमारा ग्रुप जमता तो हम साथ में गुनगुनाते, हँसते एक दूसरे और करीब आते गए। 
हम उम्र के जिस पड़ाव पर थे वहां रिश्तों की परिधियाँ कभी कभी नासमझी की शिकार हो जाती है । एक रोज ऐसा ही कुछ हुआ जिसने हमेशा हमेशा के लिए हमारे बीच ऐसे कांटें बिखेर दिए जिसने जब भी मौका मिला हमें दूर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । गलतफहमी की एक ऐसी दीवार जिसने उसकी नजरों में मुझे एक अपराधी बना दिया । मैंने उस गलतफहमी को दूर करने की को कोशिशें की लेकिन वह मेरे अपराध स्वीकारोक्ति के लिए अड़ी रही । वह औरों से थोड़ी अलग है । अपार प्रेम और थोड़ा नटखटपन, ढेर सारी जिद और उतना ही स्नेह । बाहर से सख्त दिखने वाली अंदर से उतनी ही कोमल। वह हममें इसलिए भी अलग थी क्योंकि उसका नजरिया हमसे अलग था वह दुनिया की शर्तों से परे ज़िन्दगी को अपनी समझ की कसौटी पर जीती थी । जो उसे गलत लगता उसके लिए पत्थर सी सख्त बन जाती जो सही लगता उस पर अपना स्नेह न्यौछावर करने को तत्पर रहती । शायद यही वजह थी कि मेरे स्पष्टीकरण को झूठ समझ वह मुझे कभी माफ नहीं कर पाई । 
मुझे उसकी बड़ी याद आती है कभी उसके जैसे किसी फ़िल्म के किसी पात्र को देख, कभी उसके साथ घूमें कुछ रास्तों को देख, कभी साथ गुनगुनाते किसी शाम को महसूस कर तो कभी उसकी बेबाकी को याद कर...

Tuesday, 3 December 2019

उम्मीदें..

"बिना उम्मीदों वाली ज़िन्दगी कितनी अच्छी होती है न !" 
यह बोलते हुए वो मुझसे दूर, दूर तक जाती सड़क को यूँ ही देखती जा रही थी । यह प्रश्न नहीं था और वह मेरी तरफ से इसका जवाब भी नहीं चाहती थी । उसके चेहरे की थकान गुम होकर सुकून बन रही थी । वह खुश थी, दुःखी थी, नाराज़ थी या थोड़ा थोड़ा सब; यह समझ पाना आज आसान नहीं लग रहा था । वह बिना मेरी तरफ देखे यूँ ही खोई हुई आगे बोलती रही ।
"जब हम सब कुछ वैसा ही स्वीकार करने लगते है जो जैसे होता जाता है या होता जा रहा है तो चलते रहना कितना अलग सा एहसास देने लगता है । बिना बोझ के सफर जैसा, खाली हाथ। जो जिस रूप में जैसे पसंद आ जाय उसे वैसे ही गले लगा लेना और उम्मीदी के बिना, बिना बोझ के आगे बढ़ जाना ।"
वह अभी और बोलना चाहती थी शायद । उसके ख्याल और उधेड़बुन के आगे शब्द कम पड़ रहे थे । ये बातें  प्रश्न न होते हुए भी मेरे जेहन में प्रश्न बनकर उतरते जा रहे थे । 
क्या सच में जीवन की यही सच्चाई है कि बिना उम्मीद के , आशाओं के आगे बढ़ते रहना ? 
क्या हर एहसास को हम बिना उम्मीद के उतनी तवज्जो दे पाएंगे जो हम उम्मीद के सहारे देते आएं है ? 
क्या हर रिश्ते का  रंग उतना चटक हो पायेगा जो उम्मीद की धूप में सूखकर बारिशों में भी धूमिल नही होता ?
(To be continued) 
~दीपक


Thursday, 21 November 2019

एक रंग बिरंगी तितली

उसे मुझसे प्यार था या नहीं मुझे नहीं पता पर उसे मेरा साथ यकीनन पसंद था । हम साथ होते तो दुनिया थोड़ी अलग लगने लगती थी । पत्तों की सरसराहट, ठंडी हवावों की सिहरन, चिड़ियों की चहक सब बड़े करीब से सुनाई देने लगता था । एक रोज पत्थरों की किसी पुरानी इमारत को निहारते रुमानियत में खोये हमारे होंठो को किसी चुम्बन ने बाँध लिया था  । उस रोज हम बहुत करीब आ गए थे । देर शाम तक उसकी गोदी में सर रखे मैं बड़ी देर तक कुछ सोचता रहा था और उंगुलियां मेरे बालों को सहलाती रही थी । शाम और ढली तो अंधेरा हमें और करीब लाने की कोशिशें करने लगा पर उसे घर जाने को देर होने लगी थी। उस रात हम अपने अपने हिस्से के आसमान को निहारते रहे थे।


सुबह हुई तो वह एक रंग बिरंगी तितली बन गयी थी, जिसको हर कोई अपनी मुट्ठी में बन्द कर लेने के सपने देखने लगा था । सपने मैं भी देखता था लेकिन मैंने कभी उसे मुठ्ठी में बंद नहीं किया । वह देर तक मेरी हथेली पर बैठी रहती पर मुझे उसके नए रंग बिरंगे पंख नजर नहीं आते थे। वह दिन भर जी भर के आसमान में उड़ाने भरती मैं हथेली फैलाये शाम होने का इंतजार करता । हम मिलते ही आपनी अपनी थकानें भूल जाते । वो मुझे दिन भर के अपने किस्से सुनाती और देर तक मुस्कुराता रहता । थोड़ी देर में अंधेरा गहराने लगता और वो अपने घर चली जाती । मैं भी किताबों की रोशनी में सपने बुनने में लग जाता था ।  वह चाहती थी कि किसी रोज मैं उसे मुट्ठी में बंद कर लूं पर मैं खुद को उसकी आजादी छीनने का हकदार नहीं मानता था । मैं चाहता था.....
(लिखी जा रही अधूरी कहानी का अंश )
To be continued
~दीपक

Tuesday, 19 November 2019

एक दूसरे की जरुरत बनते-बनते आदत बन गए..

नवंबर महीने के आखिरी दिन थे । सर्दियाँ ठंडी हवाओं के सहारे दस्तक दे चुकी थी । दिन ब दिन शामें ठंडी होती जा रही थी और इन्ही ठंडी शामों में हम एक दूसरे के करीब आते, एक दूसरे को प्यार करना सीख रहे थे । कभी हाथ में हाथ डाले दूर तक चलते हुए एक दूजे की छोटी छोटी खुशियों के बहाने ढूंढते, कभी चाय की चुस्कियों के साथ पार्क के पौधों पर फैली ओंस को निहारते हुये, कभी गुनगुनी धूप सेंकते एक दूजे के स्पर्श को महसूस करते हुए। हमें पता भी नही चला कि कैसे हम एक दूसरे की जरुरत बनते-बनते एक दूसरे की आदत बन गए । 
~दीपक

Saturday, 28 September 2019

अफ़सोस

मुझे आज इस बात का बहुत अफ़सोस होता है कि हमने ये कभी क्यों नही सोचा की जब हम किसी वजह से दूर हो जाएंगे तो एक दूसरे की जिन्दगियों में हमारी वजूद क्या होगा । हम कैसे जता पाएंगे अपने दिलों के गहराई में उठते उस दर्द को जो इन ठंड हवावों के आगोश में और गहरा रहा होगा। तुम जब बहुत दूर हो जाओगे तो मैं कैसे बोल पाऊंगा थोड़ी देर के लिए मुझे तुम्हारी बाहों की गर्मी में अपने ढेर सारे आँसू उलेड़ देना है । मैं क्या करूँगा उन शामों की घेरती तन्हाई में जब हर अनजान शख्स में मुझे सर्फ तुम्हारा अक्स नजर आ रहा होगा । मैं क्या करूँगा जब तुम्हारा हाथ थाम के यूँ ही चलते रहने की तलब में मेरा उन रास्तों को देख भागने जी करेगा जहां तुम कभी साथ होते थे।
क्या बस अफ़सोस ही जिंदा रहेगा ....ढेर सारे खालीपन लिए ...और तुम हमेशा के लिए दूर हो जाओगे ...
~दीपक

Friday, 2 August 2019

गलती के आंसू..

वह एक गलती करके रोना चाहती थी लेकिन मुझे उसके आँसू नहीं देखने थे । मैं नहीं चाहता था कि वह ऐसी कोई गलती करे जिसमें मैं साथ देकर अपने लिए खुशियां का इनाम पा जाऊं और उसके हिस्से में ढेर सारे आँसू छोड़ दूं। लेकिन वह जिद्दी निकली उसे गलती करने के लिए उसका मन उकसा रहा था । 

एक रोज किसी और ने उसे ढूंढ लिया जिसे उसकी गलतियों का इनाम मिल सके । वह उसके साथ जाने को कैसे तैयार हुई मुझे आज तक पता नहीं लेकिन उसके जाते ही ढेर सारे आंसू बादल बन गए। ये आसूं उसके थे या मेरे या शायद हम दोनों के मुझे ये भी पता नहीं। ये बादल मेरे खयालो की गहराइयों तक छिप गए हैं । जब तब घटा जोर की छा जाती है लेकिन ये अब भी बरसती नहीं ...तब ऐसा लगता है ये किसी गलती का इंतजार कर रहे हैं । 
~दीपक

Wednesday, 24 July 2019

ठंडी हवावों का बंधन

जून के गर्मी भरे शुरुआती दिन थे। हम अब भी इंटर्नशिप की तलाश में intershala गाहें बेगाहें देखते रहते थे । आज सुबह सुबह एक कॉल आयी । हम दोनों को इंटर्नशीप के इंटरव्यू के लिए बुलाया गया था। दोपहर की गर्मी में वो होस्टल से मेरे फ्लैट के नीचे आ चुकी थी, आदतन आज भी थोड़ा देर हो गयी थी मुझसे। मैं आते ही तैयार था उसके गुस्से और प्यार वाली डांट के लिए, मुझे पता था अभी  मैं सब सही कर लूंगा । हुआ भी वैसे । हमने ऑटो लिया दिए गए पते को ढूढंने निकल गए । इंटरव्यू अच्छा हुआ और थोड़ी देर में हम फ्री हो गए । हमने GIP मॉल जाने का सोचा, जैसा कि हम स्टूडेंट लाइफ में अक्सर करते थे, मॉल में गर्मी से निजात मिल जाएगी और साथ में कुछ खाना पीना भी हो जाएगा क्योंकि अब तक भूख भी लगने लगी थी ।
मॉल में घण्टों इधर उधर घूमने, खाने पीने के बाद अब वापस लौटना था । शाम के साथ मौसम रुख़ बदल चुका था । हमने ऑटो लिया कि तभी जोरों की बारिश आ गयी । बारिश की नन्ही नन्ही ढेर सारी बूदें हवावों के सहारे हमें छू के गुजर रही थी।
उसने अपना सर मेरे कंधे पर टिका दिया । नोएडा की सकरी सड़को पर चलती गाड़ियों आस पास बैठे लोगों से बेखबर मैं हवा के हर ठंडे झोंके से उसे छिपा लेना चाहता था। वह किसी सोती बच्ची सी हवा के हर झोंके के साथ और सिमट सी जाती थी ।

हम कॉलेज पहुँच गए अब तक बारिश भी बिल्कुल हल्की हो चुकी थी । हमने जाने से अपने स्पेशल टपरी से चाय पीने की सोची । स्पेशल इसलिये क्योंकि उस टपरी से हमारी ढेर सारी यादें जुड़ी है, ऊँची ऊँची बिल्डिंग्स के नीचे एक कोने में बिहार के किसी गांव से आये एक भैया वहां चाय बनाते थे ।  वह जगह ऐसी थी कि शायद कोई चाय पीने के लिए किलोमीटर भर पैदल चलता और वहां जाता सो वह हम लोगों की सीक्रेट जगह बन गयी थी । चाय वाले भैया हमारे लिए स्पेशल चाय बनाते और हम इस बीच ढेर सारी बातें करते । आज हम चुप थे। बड़ी देर तक वह मेरे कंधे पर सर टिकाये बैठी रही । मैं कभी कभी उसके बालों में हाथ फेरता तो वह और सिमट जाती । ठंडी हवावों के हर झोंके साथ हम गुम होते जा रहे थे । हमनें चाय पी और एक दूसरे का हाथ थामे पैदल ही गर्ल्स हॉस्टल की तरफ चलने लगे । अचानक हम रुक गए,  हमारे हाथों पकड़ कमजोर हो गयी, ऊँची ऊँची बिल्डिंग्स की ढेर सारे खिड़कियों से अनजान हम अब एक दूसरे की बाहों में थे । हम एक दूसरे को आज जी भर के गले लगाना चाहते थे । बारिश बन्द हो गयी थी लेकिन ठंडी हवा हमें बाँध रही,उस अनजाने से रिश्तें में जो एक दिन टूटने वाला था ।
(लिखी जा रही  कहानी का कुछ अंश)
~दीपक

Wednesday, 10 July 2019

बचपन, गाँव और बारिश..

अतीत और खास कर बचपन से जुड़ी बातें जब जेहन में आती है तो एक अजीब सी मुस्कराहट होठों पर छोड़ जाती है । आज जब शहर में बारिश को तरसता हूँ या बारिश को सीसे के उस पार से देखता हूँ तो मुझे वो बचपन और गाँव वाली बारिश याद आती है ।
बारिश के दिन की सबसे अच्छी बात ये होती थी उस दिन हम नेशनल हॉलिडे डिक्लेरेयर कर देते थे मतलब कि उस दिन बिना किसी और बहाने के दिन भर बिना अम्मा पापा के स्कूल न जाने के लिये डांट के, पूरा दिन मौज किया जा सकता था।
कभी कभी बारिश इतनी तेज होती कि घर से बाहर नहीं निकल सकते ऐसे में पूरा परिवार साथ बैठता । कभी कभी पड़ोस से कोई आ जाता और बातचीत की महफ़िल जम जाती । ऐसे में अक्सर पापा पकौड़ियों की फरमाइश करते और हम अंदर ही अंदर खुश हो जाते। अब पापा घर रहते तो सुरक्षात्मक कारणों से दिखाने के लिए ही सही पर किताबें कापियाँ भी खुली रखी जाती थी लेकिन बड़ी दीदी जब तक पकौड़ियाँ बना नही लेती हम एक दो चक्कर किचेन के लगा आते थे ।
घर पर बनी गरमा गरम पकौड़ियाँ साथ में चाय और  बाहर झमाझम बारिश, आज सब धुंधला ही सही, याद आता है तो मन उसी में खो सा जाता है ।


मझली दीदी हमें कागजों वाली नावँ बनाना सिखाती और  जैसे ही बारिश थमती हम अपनी अपनी नावँ लिए पास के तालाब पहुँच जाते । हम इस उम्मीद में नावँ तालाब में छोड़ते कि यह तैरते तैरते उस पार पहुँच जायेगी । अक्सर इस बात पर शर्त भी लगती । कभी कभी एक्सपेरिमेंट के तौर पर नावँ पर चीटें भी बैठाये जाते, ऐसा मानना था कि ये नावँ ढूबने नहीं देंगे और हम शर्त जीत जायेंगे । लेकिन वे तेज पानी के बहाव को नही सह पाती और शायद ही कोई नावँ उस पर तक पहुँच पाती ।
बारिश के साथ तालाब किनारे नए नए निकल आये पीले पीले मेढ़क भी बड़े कौतूहल के विषय होते, हम पापा के बताए इस बात पर कम भरोशा कर पाते थे कि कुछ दिनों पहले की चिलचिलाती धूप में ये जमीन के अंदर छिपे थे सो अक्सर इसको लेकर हम अपने अपने काल्पनिक ज्ञान साझा करते ।
गाँव में बारिश के दिन आसान नहीं होते थे, आसपास पानी भर जाना, जलावन की लकड़ियों की किल्लत, जानवरों के चारे और रहने की दिक्कतें सो अलग लेकिन हम बच्चें थे और अम्मा पापा सारी दिक्कतें अपने ऊपर समेत लेते थे ।

Monday, 1 July 2019

अधूरापन

उसके जाने के बाद से मेरे जीवन में एक अजीब सा अधूरापन घर कर गया है । मैं अक्सर तरकीबें सोचता हूँ  और अलग अलग तरीकों से उस अधूरेपन, उस खाली कोने को भरने की कोशिश करता हूँ पर जब अपनेआप में वापस लौटता हूँ तो वह कोना जस का तस बना मिलता है खाली, एक अजीब सी खामोशी ओढ़े । हमारी जिंदगियों में कभी कभी कुछ ऐसा हो जाता है जिसकी वजहें हमें लाख सोचने के बाद भी समझ नहीं आती । कभी कभी लगता हैं कि सड़क सपाट हो तो चलने में बोरियत हो जाएगी कुछ बाधाएं जरूरी है रफ्तार की तारतम्यता और अन्तःकरण की चेतना के लिए फिर लगता है कि क्या ये बाधाएं इतनी गहरी होनी चाहिए कि इनसे उबरना मुश्किल हो जाय?
बहुत सोचने पर लगता है हर बाधा अपनेआप में कुछ सीखे लिए होती है और शायद इनकी गहराई भी उन्ही के अनुपात कम या ज्यादा होती जाती है ।
पता है तुम्हारे जाने के बाद से दुनिया के लिए मेरा नजरिया बदल गया है । अब किसी पर भरोसा बढ़ने लगे तो एक अजीब सा डर आने लगता है मेरे अंदर । अब उजाले का लबादा ओढ़े दुनिया का ढेर सारा अंधकार मुझे दिन में भी दिखाई दे जाता है । अब किसी के चेहरे की मासूमियत मेरे दिल में पिघलने भर का आघात नहीं कर पाती । कभी कभी मुझे लगता है अब मेरा बच्चों वाला दिल; चालाक और समझदार दिमाग की बातें सुनने लगा है ...
(लिखी जा रही कहानी "मेरी ज़िन्दगी मेरा प्यार" का कुछ अंश)
~दीपक

Wednesday, 5 June 2019

साम्य कहीं बंधन न बन जाय..

उतार चढ़ाव भरी ज़िन्दगी को देख अक्सर कुछ लोगों का कहना याद आता है क्यूं न हमेशा साम्य में जिया जाय; खुशियों की न बहुत खुशी और गम में न बहुत गम । फिर लगता है ये साम्य कहीं बंधन न बन जाय क्योंकि एक सोच ये भी कहती है कि जिंदगी को स्वक्षन्द होकर जिये, खुशियों में जी भर के खुशियां मनाए और गम के दिनों में शोक भी मनाये, उसे भी महसूस करें । मुझे ऐसा लगता है कभी कभी हम इन दो पहलुओं में उलझते जरूर होंगे। जब मैं किसी योगी के जीवन को देखता हूँ तो उसमें मुझे पहले पहलू का आचरण दिखता है, एक अनोखा साम्य जिसे परिस्थितियां ज्यादा प्रभावित नहीं कर पाती और कुछ जिंदगियां ऐसी भी हैं जिनमें दूसरे पहलू का अक्स दिखता है; पूर्णतया परिस्थितिजन्य । लेकिन मुझे लगता है अंत में ये दोनो पहलू एक हो जाते है जो साम्य को धारण करने, बनाये रखने में सक्षम है वो साम्य में बना रहता है बाकियों को वक्त अपनी रफ्तार के साथ उतार चढ़ाव के बीच आगे बढ़ाता रहता है ।
~दीपक