यहाँ बातें करता हूँ मै कुछ दिली जज्बातों की , माझी की कुछ यादों की , राहों में ठिठके रह गए बेबस दरख्तों की , कुछ हर रोज जीते कुछ खट्ते मीठे एहसासों की .... . . बड़ा प्यारा लगता है मुझे ये एहसासों का कारवाँ....बस इन्हे शब्दों में ढालने की कला तलाश रहा हूँ....सच कहूँ अँधेरे में डूब चुकी कुछ अनजान बस्तियों के लिए रौशनी तलाश रहा हूँ .....
Saturday, 28 December 2019
नासमझी के शिकार रिश्तें ...
Tuesday, 3 December 2019
उम्मीदें..
Thursday, 21 November 2019
एक रंग बिरंगी तितली
सुबह हुई तो वह एक रंग बिरंगी तितली बन गयी थी, जिसको हर कोई अपनी मुट्ठी में बन्द कर लेने के सपने देखने लगा था । सपने मैं भी देखता था लेकिन मैंने कभी उसे मुठ्ठी में बंद नहीं किया । वह देर तक मेरी हथेली पर बैठी रहती पर मुझे उसके नए रंग बिरंगे पंख नजर नहीं आते थे। वह दिन भर जी भर के आसमान में उड़ाने भरती मैं हथेली फैलाये शाम होने का इंतजार करता । हम मिलते ही आपनी अपनी थकानें भूल जाते । वो मुझे दिन भर के अपने किस्से सुनाती और देर तक मुस्कुराता रहता । थोड़ी देर में अंधेरा गहराने लगता और वो अपने घर चली जाती । मैं भी किताबों की रोशनी में सपने बुनने में लग जाता था । वह चाहती थी कि किसी रोज मैं उसे मुट्ठी में बंद कर लूं पर मैं खुद को उसकी आजादी छीनने का हकदार नहीं मानता था । मैं चाहता था.....
(लिखी जा रही अधूरी कहानी का अंश )
Tuesday, 19 November 2019
एक दूसरे की जरुरत बनते-बनते आदत बन गए..
Saturday, 28 September 2019
अफ़सोस
मुझे आज इस बात का बहुत अफ़सोस होता है कि हमने ये कभी क्यों नही सोचा की जब हम किसी वजह से दूर हो जाएंगे तो एक दूसरे की जिन्दगियों में हमारी वजूद क्या होगा । हम कैसे जता पाएंगे अपने दिलों के गहराई में उठते उस दर्द को जो इन ठंड हवावों के आगोश में और गहरा रहा होगा। तुम जब बहुत दूर हो जाओगे तो मैं कैसे बोल पाऊंगा थोड़ी देर के लिए मुझे तुम्हारी बाहों की गर्मी में अपने ढेर सारे आँसू उलेड़ देना है । मैं क्या करूँगा उन शामों की घेरती तन्हाई में जब हर अनजान शख्स में मुझे सर्फ तुम्हारा अक्स नजर आ रहा होगा । मैं क्या करूँगा जब तुम्हारा हाथ थाम के यूँ ही चलते रहने की तलब में मेरा उन रास्तों को देख भागने जी करेगा जहां तुम कभी साथ होते थे।
क्या बस अफ़सोस ही जिंदा रहेगा ....ढेर सारे खालीपन लिए ...और तुम हमेशा के लिए दूर हो जाओगे ...
~दीपक
Friday, 2 August 2019
गलती के आंसू..
Wednesday, 24 July 2019
ठंडी हवावों का बंधन
मॉल में घण्टों इधर उधर घूमने, खाने पीने के बाद अब वापस लौटना था । शाम के साथ मौसम रुख़ बदल चुका था । हमने ऑटो लिया कि तभी जोरों की बारिश आ गयी । बारिश की नन्ही नन्ही ढेर सारी बूदें हवावों के सहारे हमें छू के गुजर रही थी।
उसने अपना सर मेरे कंधे पर टिका दिया । नोएडा की सकरी सड़को पर चलती गाड़ियों आस पास बैठे लोगों से बेखबर मैं हवा के हर ठंडे झोंके से उसे छिपा लेना चाहता था। वह किसी सोती बच्ची सी हवा के हर झोंके के साथ और सिमट सी जाती थी ।
हम कॉलेज पहुँच गए अब तक बारिश भी बिल्कुल हल्की हो चुकी थी । हमने जाने से अपने स्पेशल टपरी से चाय पीने की सोची । स्पेशल इसलिये क्योंकि उस टपरी से हमारी ढेर सारी यादें जुड़ी है, ऊँची ऊँची बिल्डिंग्स के नीचे एक कोने में बिहार के किसी गांव से आये एक भैया वहां चाय बनाते थे । वह जगह ऐसी थी कि शायद कोई चाय पीने के लिए किलोमीटर भर पैदल चलता और वहां जाता सो वह हम लोगों की सीक्रेट जगह बन गयी थी । चाय वाले भैया हमारे लिए स्पेशल चाय बनाते और हम इस बीच ढेर सारी बातें करते । आज हम चुप थे। बड़ी देर तक वह मेरे कंधे पर सर टिकाये बैठी रही । मैं कभी कभी उसके बालों में हाथ फेरता तो वह और सिमट जाती । ठंडी हवावों के हर झोंके साथ हम गुम होते जा रहे थे । हमनें चाय पी और एक दूसरे का हाथ थामे पैदल ही गर्ल्स हॉस्टल की तरफ चलने लगे । अचानक हम रुक गए, हमारे हाथों पकड़ कमजोर हो गयी, ऊँची ऊँची बिल्डिंग्स की ढेर सारे खिड़कियों से अनजान हम अब एक दूसरे की बाहों में थे । हम एक दूसरे को आज जी भर के गले लगाना चाहते थे । बारिश बन्द हो गयी थी लेकिन ठंडी हवा हमें बाँध रही,उस अनजाने से रिश्तें में जो एक दिन टूटने वाला था ।
(लिखी जा रही कहानी का कुछ अंश)
~दीपक
Wednesday, 10 July 2019
बचपन, गाँव और बारिश..
बारिश के दिन की सबसे अच्छी बात ये होती थी उस दिन हम नेशनल हॉलिडे डिक्लेरेयर कर देते थे मतलब कि उस दिन बिना किसी और बहाने के दिन भर बिना अम्मा पापा के स्कूल न जाने के लिये डांट के, पूरा दिन मौज किया जा सकता था।
कभी कभी बारिश इतनी तेज होती कि घर से बाहर नहीं निकल सकते ऐसे में पूरा परिवार साथ बैठता । कभी कभी पड़ोस से कोई आ जाता और बातचीत की महफ़िल जम जाती । ऐसे में अक्सर पापा पकौड़ियों की फरमाइश करते और हम अंदर ही अंदर खुश हो जाते। अब पापा घर रहते तो सुरक्षात्मक कारणों से दिखाने के लिए ही सही पर किताबें कापियाँ भी खुली रखी जाती थी लेकिन बड़ी दीदी जब तक पकौड़ियाँ बना नही लेती हम एक दो चक्कर किचेन के लगा आते थे ।
घर पर बनी गरमा गरम पकौड़ियाँ साथ में चाय और बाहर झमाझम बारिश, आज सब धुंधला ही सही, याद आता है तो मन उसी में खो सा जाता है ।
मझली दीदी हमें कागजों वाली नावँ बनाना सिखाती और जैसे ही बारिश थमती हम अपनी अपनी नावँ लिए पास के तालाब पहुँच जाते । हम इस उम्मीद में नावँ तालाब में छोड़ते कि यह तैरते तैरते उस पार पहुँच जायेगी । अक्सर इस बात पर शर्त भी लगती । कभी कभी एक्सपेरिमेंट के तौर पर नावँ पर चीटें भी बैठाये जाते, ऐसा मानना था कि ये नावँ ढूबने नहीं देंगे और हम शर्त जीत जायेंगे । लेकिन वे तेज पानी के बहाव को नही सह पाती और शायद ही कोई नावँ उस पर तक पहुँच पाती ।
बारिश के साथ तालाब किनारे नए नए निकल आये पीले पीले मेढ़क भी बड़े कौतूहल के विषय होते, हम पापा के बताए इस बात पर कम भरोशा कर पाते थे कि कुछ दिनों पहले की चिलचिलाती धूप में ये जमीन के अंदर छिपे थे सो अक्सर इसको लेकर हम अपने अपने काल्पनिक ज्ञान साझा करते ।
गाँव में बारिश के दिन आसान नहीं होते थे, आसपास पानी भर जाना, जलावन की लकड़ियों की किल्लत, जानवरों के चारे और रहने की दिक्कतें सो अलग लेकिन हम बच्चें थे और अम्मा पापा सारी दिक्कतें अपने ऊपर समेत लेते थे ।
Monday, 1 July 2019
अधूरापन
उसके जाने के बाद से मेरे जीवन में एक अजीब सा अधूरापन घर कर गया है । मैं अक्सर तरकीबें सोचता हूँ और अलग अलग तरीकों से उस अधूरेपन, उस खाली कोने को भरने की कोशिश करता हूँ पर जब अपनेआप में वापस लौटता हूँ तो वह कोना जस का तस बना मिलता है खाली, एक अजीब सी खामोशी ओढ़े । हमारी जिंदगियों में कभी कभी कुछ ऐसा हो जाता है जिसकी वजहें हमें लाख सोचने के बाद भी समझ नहीं आती । कभी कभी लगता हैं कि सड़क सपाट हो तो चलने में बोरियत हो जाएगी कुछ बाधाएं जरूरी है रफ्तार की तारतम्यता और अन्तःकरण की चेतना के लिए फिर लगता है कि क्या ये बाधाएं इतनी गहरी होनी चाहिए कि इनसे उबरना मुश्किल हो जाय?
बहुत सोचने पर लगता है हर बाधा अपनेआप में कुछ सीखे लिए होती है और शायद इनकी गहराई भी उन्ही के अनुपात कम या ज्यादा होती जाती है ।
पता है तुम्हारे जाने के बाद से दुनिया के लिए मेरा नजरिया बदल गया है । अब किसी पर भरोसा बढ़ने लगे तो एक अजीब सा डर आने लगता है मेरे अंदर । अब उजाले का लबादा ओढ़े दुनिया का ढेर सारा अंधकार मुझे दिन में भी दिखाई दे जाता है । अब किसी के चेहरे की मासूमियत मेरे दिल में पिघलने भर का आघात नहीं कर पाती । कभी कभी मुझे लगता है अब मेरा बच्चों वाला दिल; चालाक और समझदार दिमाग की बातें सुनने लगा है ...
(लिखी जा रही कहानी "मेरी ज़िन्दगी मेरा प्यार" का कुछ अंश)
~दीपक
Wednesday, 5 June 2019
साम्य कहीं बंधन न बन जाय..
उतार चढ़ाव भरी ज़िन्दगी को देख अक्सर कुछ लोगों का कहना याद आता है क्यूं न हमेशा साम्य में जिया जाय; खुशियों की न बहुत खुशी और गम में न बहुत गम । फिर लगता है ये साम्य कहीं बंधन न बन जाय क्योंकि एक सोच ये भी कहती है कि जिंदगी को स्वक्षन्द होकर जिये, खुशियों में जी भर के खुशियां मनाए और गम के दिनों में शोक भी मनाये, उसे भी महसूस करें । मुझे ऐसा लगता है कभी कभी हम इन दो पहलुओं में उलझते जरूर होंगे। जब मैं किसी योगी के जीवन को देखता हूँ तो उसमें मुझे पहले पहलू का आचरण दिखता है, एक अनोखा साम्य जिसे परिस्थितियां ज्यादा प्रभावित नहीं कर पाती और कुछ जिंदगियां ऐसी भी हैं जिनमें दूसरे पहलू का अक्स दिखता है; पूर्णतया परिस्थितिजन्य । लेकिन मुझे लगता है अंत में ये दोनो पहलू एक हो जाते है जो साम्य को धारण करने, बनाये रखने में सक्षम है वो साम्य में बना रहता है बाकियों को वक्त अपनी रफ्तार के साथ उतार चढ़ाव के बीच आगे बढ़ाता रहता है ।
~दीपक