यह बोलते हुए वो मुझसे दूर, दूर तक जाती सड़क को यूँ ही देखती जा रही थी । यह प्रश्न नहीं था और वह मेरी तरफ से इसका जवाब भी नहीं चाहती थी । उसके चेहरे की थकान गुम होकर सुकून बन रही थी । वह खुश थी, दुःखी थी, नाराज़ थी या थोड़ा थोड़ा सब; यह समझ पाना आज आसान नहीं लग रहा था । वह बिना मेरी तरफ देखे यूँ ही खोई हुई आगे बोलती रही ।
"जब हम सब कुछ वैसा ही स्वीकार करने लगते है जो जैसे होता जाता है या होता जा रहा है तो चलते रहना कितना अलग सा एहसास देने लगता है । बिना बोझ के सफर जैसा, खाली हाथ। जो जिस रूप में जैसे पसंद आ जाय उसे वैसे ही गले लगा लेना और उम्मीदी के बिना, बिना बोझ के आगे बढ़ जाना ।"
वह अभी और बोलना चाहती थी शायद । उसके ख्याल और उधेड़बुन के आगे शब्द कम पड़ रहे थे । ये बातें प्रश्न न होते हुए भी मेरे जेहन में प्रश्न बनकर उतरते जा रहे थे ।
क्या सच में जीवन की यही सच्चाई है कि बिना उम्मीद के , आशाओं के आगे बढ़ते रहना ?
क्या हर एहसास को हम बिना उम्मीद के उतनी तवज्जो दे पाएंगे जो हम उम्मीद के सहारे देते आएं है ?
क्या हर रिश्ते का रंग उतना चटक हो पायेगा जो उम्मीद की धूप में सूखकर बारिशों में भी धूमिल नही होता ?
(To be continued)
~दीपक
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