Wednesday, 10 July 2019

बचपन, गाँव और बारिश..

अतीत और खास कर बचपन से जुड़ी बातें जब जेहन में आती है तो एक अजीब सी मुस्कराहट होठों पर छोड़ जाती है । आज जब शहर में बारिश को तरसता हूँ या बारिश को सीसे के उस पार से देखता हूँ तो मुझे वो बचपन और गाँव वाली बारिश याद आती है ।
बारिश के दिन की सबसे अच्छी बात ये होती थी उस दिन हम नेशनल हॉलिडे डिक्लेरेयर कर देते थे मतलब कि उस दिन बिना किसी और बहाने के दिन भर बिना अम्मा पापा के स्कूल न जाने के लिये डांट के, पूरा दिन मौज किया जा सकता था।
कभी कभी बारिश इतनी तेज होती कि घर से बाहर नहीं निकल सकते ऐसे में पूरा परिवार साथ बैठता । कभी कभी पड़ोस से कोई आ जाता और बातचीत की महफ़िल जम जाती । ऐसे में अक्सर पापा पकौड़ियों की फरमाइश करते और हम अंदर ही अंदर खुश हो जाते। अब पापा घर रहते तो सुरक्षात्मक कारणों से दिखाने के लिए ही सही पर किताबें कापियाँ भी खुली रखी जाती थी लेकिन बड़ी दीदी जब तक पकौड़ियाँ बना नही लेती हम एक दो चक्कर किचेन के लगा आते थे ।
घर पर बनी गरमा गरम पकौड़ियाँ साथ में चाय और  बाहर झमाझम बारिश, आज सब धुंधला ही सही, याद आता है तो मन उसी में खो सा जाता है ।


मझली दीदी हमें कागजों वाली नावँ बनाना सिखाती और  जैसे ही बारिश थमती हम अपनी अपनी नावँ लिए पास के तालाब पहुँच जाते । हम इस उम्मीद में नावँ तालाब में छोड़ते कि यह तैरते तैरते उस पार पहुँच जायेगी । अक्सर इस बात पर शर्त भी लगती । कभी कभी एक्सपेरिमेंट के तौर पर नावँ पर चीटें भी बैठाये जाते, ऐसा मानना था कि ये नावँ ढूबने नहीं देंगे और हम शर्त जीत जायेंगे । लेकिन वे तेज पानी के बहाव को नही सह पाती और शायद ही कोई नावँ उस पर तक पहुँच पाती ।
बारिश के साथ तालाब किनारे नए नए निकल आये पीले पीले मेढ़क भी बड़े कौतूहल के विषय होते, हम पापा के बताए इस बात पर कम भरोशा कर पाते थे कि कुछ दिनों पहले की चिलचिलाती धूप में ये जमीन के अंदर छिपे थे सो अक्सर इसको लेकर हम अपने अपने काल्पनिक ज्ञान साझा करते ।
गाँव में बारिश के दिन आसान नहीं होते थे, आसपास पानी भर जाना, जलावन की लकड़ियों की किल्लत, जानवरों के चारे और रहने की दिक्कतें सो अलग लेकिन हम बच्चें थे और अम्मा पापा सारी दिक्कतें अपने ऊपर समेत लेते थे ।

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