Wednesday, 5 June 2019

साम्य कहीं बंधन न बन जाय..

उतार चढ़ाव भरी ज़िन्दगी को देख अक्सर कुछ लोगों का कहना याद आता है क्यूं न हमेशा साम्य में जिया जाय; खुशियों की न बहुत खुशी और गम में न बहुत गम । फिर लगता है ये साम्य कहीं बंधन न बन जाय क्योंकि एक सोच ये भी कहती है कि जिंदगी को स्वक्षन्द होकर जिये, खुशियों में जी भर के खुशियां मनाए और गम के दिनों में शोक भी मनाये, उसे भी महसूस करें । मुझे ऐसा लगता है कभी कभी हम इन दो पहलुओं में उलझते जरूर होंगे। जब मैं किसी योगी के जीवन को देखता हूँ तो उसमें मुझे पहले पहलू का आचरण दिखता है, एक अनोखा साम्य जिसे परिस्थितियां ज्यादा प्रभावित नहीं कर पाती और कुछ जिंदगियां ऐसी भी हैं जिनमें दूसरे पहलू का अक्स दिखता है; पूर्णतया परिस्थितिजन्य । लेकिन मुझे लगता है अंत में ये दोनो पहलू एक हो जाते है जो साम्य को धारण करने, बनाये रखने में सक्षम है वो साम्य में बना रहता है बाकियों को वक्त अपनी रफ्तार के साथ उतार चढ़ाव के बीच आगे बढ़ाता रहता है ।
~दीपक

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