Friday, 30 August 2024

वर्तमान जब अतीत की शक्ल लिए खड़ा होगा ...

हमारे रिश्ते में दूर चले जाने की बहुत सी वजहें हैं । लेकिन प्यार, साथ और अपनेपन के किसी धागे ने हमें अब भी बांध रखा है।  हम अपनी अपनी दुनियावों में खोते जा रहे हैं। फिर भी एक तय वक्त हमको एक दूसरे के पास लाकर खड़ा कर देता है ।  दुनियादारी की बातों के बीच सुनते सुनाते,एक दूसरे की आखों में झांकते ...हम कब और कहां खो जाते हैं पता ही नही चलता । एक ऐसी जगह जहां हममें से कोई कुछ बोलता नहीं बस एक दूसरे की जानी पहचानी सांसों की आवाज हमारे कानों में गूंज रही होती हैं । उस दिन की कल्पना से मुझे सिहरन होती है जब एक रोज शायद यह गूंज धीमी होती होती खतम हो जायेगी । और इसी डर से मैं अब इस कल्पना से भागता रहता हूं । 

मैं अक्सर सोचता हूं कि भविष्य के किसी आईने में आज का वर्तमान जब अतीत की शक्ल लिए खड़ा होगा तो मैं खुद से नजरें मिला पाऊंगा न ? या कहीं दूर तो नहीं भागूंगा ? आज की तस्वीर; जो उस वक्त तक अतीत बन जायेगी मैं उसमें रंग भरने की कशक लिए तड़फड़ाऊंगा तो नहीं ....

~दीपक

Friday, 16 August 2024

पुरुषों के नाम एक अपील

हाल ही में पश्चिम बंगाल में एक महिला प्रशिक्षु डॉक्टर के साथ घटित अमानवीय घटना ने हमारे समाज के हर व्यक्ति के दिल को झकझोर कर रख दिया है। यह घटना केवल एक व्यक्ति के साथ नहीं, बल्कि पूरे समाज के साथ हुई है। यह एक ऐसा दर्दनाक अनुभव है, जो हमारे समाज की विकृति को उजागर करता है। 


आज, जब हम एक प्रगतिशील और आधुनिक समाज की ओर बढ़ रहे हैं, तब भी ऐसी घटनाएँ यह सोचने पर मजबूर करती हैं कि कहीं न कहीं हमारे समाज में पुरुषों की सोच में गंभीर खामी है। हम महिलाओं को देवी के रूप में पूजते हैं, लेकिन वास्तविक जीवन में उनके साथ हुए अत्याचारों को देखते हैं। यह विरोधाभास हमारे समाज के मूल्यों पर सवाल खड़ा करता है।
पुरुष होने के नाते, यह हमारी जिम्मेदारी बनती है कि हम महिलाओं के प्रति अपनी सोच को बदलें। यह आवश्यक है कि हम अपनी मानसिकता में बदलाव लाएं और महिलाओं को केवल वस्तु या मनोरंजन का साधन मानने की बजाय, उन्हें समान अधिकार और सम्मान दें। 
एक पुरुष होने का अर्थ केवल शारीरिक रूप से मजबूत होना नहीं है। इसका मतलब यह भी है कि हम मानसिक रूप से भी उतने ही परिपक्व और संवेदनशील बनें। हमें समझना होगा कि हर महिला की अपनी एक पहचान, सपने और अधिकार होते हैं। वह भी हमारी तरह इंसान है और उसे भी उसी सम्मान और सुरक्षा का अधिकार है, जिसका हकदार हम स्वयं को मानते हैं।
हमें यह भी समझना चाहिए कि महिलाओं के प्रति किए गए हमारे गलत व्यवहार का असर केवल एक महिला पर नहीं, बल्कि पूरे समाज पर पड़ता है। हमें खुद से यह सवाल पूछना होगा कि हम किस प्रकार के समाज का निर्माण कर रहे हैं? क्या यह वही समाज है जहाँ हमारी बहनें, बेटियाँ, और पत्नियाँ सुरक्षित महसूस कर सकें?
आज समय की मांग है कि हम अपनी सोच को बदलें, अपने बच्चों को भी यही सिखाएं। हमारे बेटों को यह सिखाया जाना चाहिए कि महिलाओं का सम्मान कैसे किया जाए, उनके साथ बराबरी का व्यवहार कैसे किया जाए। और इसकी शुरुआत होनी चाहिए हर परिवार और स्कूलों से ।
हमारे समाज का विकास तभी संभव है, जब हर व्यक्ति, विशेषकर पुरुष, महिलाओं के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझे और उसे निभाए।समाज के हर व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह ऐसी घटनाओं का विरोध करे, और महिलाओं के लिए एक सुरक्षित वातावरण का निर्माण करे। हमें यह समझना होगा कि महिलाओं की सुरक्षा केवल कानून का काम नहीं है, यह हमारी सामाजिक जिम्मेदारी भी है। 
आज  यह संकल्प लेने की जरूरत है कि हम अपने समाज को ऐसा बनाएँगे, जहाँ हर महिला सुरक्षित और सम्मानित महसूस करे। जहाँ कोई भी महिला बिना डर के अपने सपनों को पूरा कर सके। यही हमारे समाज के लिए सच्ची प्रगति होगी, और यही हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए एक बेहतर दुनिया की नींव होगी।

- एक जिम्मेदार नागरिक

Friday, 15 December 2023

आगे बढ़ते रहने का नाम है जीवन या कुछ अधजिए, अचानक छूट गए को याद करना, महसूस करना ...

बहुत कुछ पीछे छोड़कर भी आगे बढ़ते रहने का नाम है जीवन या कुछ अधजिए, अचानक छूट गए को याद करना, महसूस करना है जीवन l अतीत और वर्तमान का द्वंद्व है जीवन या ओट से हल्के झलकते भविष्य या उसके सपनों को ढोना है जीवन l
जब वर्तमान खुशगवार होता है तो शायद अतीत धुंधला जाता है l लेकिन यह सच स्वीकार ही करना पड़ता है की वह पूरी तरह से कभी खत्म नहीं होता l हल्की ठंडी में गुनगुनी धूप सेंकते हम कुछ अच्छे पलों को याद करके कभी भी मुस्कुरा सकते हैं l सुबह सुबह चाय के कप की गर्मी को हथेलियों के बीच रखे कुछ ठंडे पड़ गए रिश्तों की गर्माहट को महसूस करने की कोशिश कर सकते हैं l अतीत उस शहर में अचानक लौट जाने जैसा होता है जहां आपने कभी वर्षों बिताया हुआ था लेकिन बदलाव और समय के प्रवाह ने आपको उसी अपने और अपनों के शहर में अजनबी बना दिया हो l आप अजनबीयत को ओढ़े बहुत देर तक जानी पहचानी गलियों, चौराहों पर भटकते हैं लेकिन जल्द ही वर्तमान में भाग आने को मजबूर होने लगते हैं l हम photographers की भाषा में एक term है "recreating the moments" l किसी पुरानी फोटो को दिखाकर client अक्सर ये term यूज करते हैं l हम client का दिल रखने को न भले न करें पर हमें अच्छे से पता होता है कि बहुत मेहनत से click और एडिटिंग के बाद भी हम उन पुराने पलों की गर्माहट वर्तमान में नहीं भर सकते वैसे ही जैसे पुरानी डायरी के पन्नो के बीच छिपाकर रखे गुलाब की पंखुड़ियों किसी बीते हुए वक्त के उस रंग, उस खुशबू, उस रोमांच को वापस नहीं कर सकते ...
~दीपक

Tuesday, 22 August 2023

मां, शहर और गांव ...

माँ कुछ दिनों के लिए मेरे पास आई है । गांव से शहर ।  पहले तो ट्रेन का अकेला सफ़र और उस पर शहर के अपने जीवन और यहां के तौर तरीकों के प्रति उनका डर या यूं कहूं की संकोच। मेरे बहुत मिन्नतों और भरोसा दिलाने  के बाद मां आने को तैयार हुई । 
आते ही मम्मी ने सबसे पहले सफाई अभियान शुरू किया । उनके आदेश पर cook की छुट्टी हम पहले ही कर चुके थे सो आते ही उन्होंने किचन संभाल लिया । बर्तन, चूल्हे और अन्य सभी सामानों को मानों नया जीवन मिल गया । चीनी, चायपत्ती से लेकर आटा, दाल चावल सब डिब्बाबंद नज़र आने लगे । सफाई के प्रति हम सबके ( मेरे और मेरे रूममेट) के लिए आए दिन नए नए circular जारी होने लगे। सब मिलाकर हमारा फ्लैट अब घर टाइप फील देने लगा । 

पिछले काफी समय से मम्मी की तबीयत खराब रहती है । उनके अपने पास बुलाने की बड़ी वजह भी यही थी कि उनको किसी अच्छे डॉक्टर को दिखाया जाय । डॉक्टर की appointment , tests और reports के चक्कर में कभी ऑटो, मेट्रो और पैदल मम्मी भी धीरे धीरे शहर को जानने की शुरुआत कर चुकी हैं । 

शुरुआती कुछ दिन तो वह मेरे सहारे इस छोटी सी अनजान दुनिया में अपने आप को ढालने की  कोशिशें करती रहीं लेकिन जल्द ही उनको अजीब लगने लगा । मुझे लगा गांव का बड़ा सा घर और उससे भी बड़ा दुआर ( हमारे यहां घर के सामने फैले बड़ी जगह को दुआर बोलते हैं) और यहां दो छोटे-छोटे कमरे का फ्लैट ....कुछ दिन रहेंगी तो आदत हो जायेगी । मैंने पास का छोटा सा मंदिर और पार्क भी मम्मी को दिखा दिया । सोचा इन सबके सहारे मम्मी का मन लग जायेगा । 

एक शाम लाइब्रेरी से वापस आया तो मम्मी थोड़ी रुआंसी सी दिखी । मेरे पूछने पर वह बस इतना बता पाई की उनकी तबीयत अच्छी नहीं है । उसी शाम बहन का कॉल आया वह बोली मम्मी को लेकर वापस आ जाओ उन्हें वहां अच्छा नहीं लग रहा । उस रात मम्मी के पैर दबाते समय जब मैंने मम्मी के परेशानी जानने को उनसे बातें शुरू की तो पता चला कि उनको समस्या छोटे कमरों या छोटी जगह से नहीं है, दिक्कत यह है की यहां के अजनबीपन से वह ऊबने लगी है । गांव में भले ही चौबीसों घंटे बिजली न रहती हो, एक फोन कॉल पर किसी भी मन चाही चीज delivery ना होती हो लेकिन वहां की आबो हवा में अपनापन है, समरसता है । वहां घर के बाहर भी निकलो तो  पायलागी और खुश रहो के रूप में ही सही अंदर के अजनबीपन को दूर करते जानने पहचानने वाले चेहरे हैं ।

कितना अजीब है न ! इस उपभोक्तावादी युग में गांव का हर नौजवान आज शहर जाना चाहता है । यहां तक कि वह अपने गांव को शहर बन जाते देखना चाहता है । वह आधुनिकता की दौड़ में खुद को स्थापित करने को एक कृत्रिमता से भरे जीवन और  भाग-दौड़ को स्वीकारता जा रहा है, जाने अनजाने ही सही उसका आदी होता जा रहा है । लेकिन एक वर्ग  ऐसा भी है  जो शायद गांव को गांव ही रहने देना चाहता है क्योंकि उसकी जड़ें गांव की जिंदादिली और समरसता में ही बसती है ...
~दीपक 

Wednesday, 2 August 2023

एक कौम के विकास की असफलता..

आज की इंसानी कौम लाखों करोड़ो वर्ष पहले जानवर हुआ करती थी . दो नहीं चार पैरों वाली . अपनी जरूरत कहें या जिद! किसी न किसी नाते इस कौम ने अपने दो पैरों को हाथ बना लिया . प्रकृति  इसमें सहयोग में थी या वह विरोध में इस बात को पुख्ता तौर पर साबित कर पाना आसान नहीं. पर एक बात जरूर है कि इसने इस कौम के जरूरत के हिसाब से नए प्रयोगों को करने और सीखने की ललक को आगे ही बढ़ाया. इंसानी कौम जो मूलतः जानवर ही थी धीरे धीरे सामाजिक विकास के सहारे सभ्य होती गई. इसने नियम कानून बनाए , तौर तरीके विकसित किए ताकि एक सभ्य और सुसंस्कृत समाज विकसित हो सके .
 
जानवरों और इंसानी कौम में फ़र्क क्या है ... फर्क है सिर्फ बुद्धि और बल के अनुपात का . और आज भी जब-जब यह अनुपात अपना संतुलन खोता है इंसान वापस जानवरों जैसा व्यवहार करने लगता है . चाहे वह खबर किसी नवजात के रेप का हो या किसी अपने की दुर्दांत हत्या और शव के क्षत विक्षत करने  या जातीय द्वेष के बदले एक भीड़ के द्वारा महिलाओं का घिनौना अपमान हो . ऐसे अन्य जघन्य मामले जहां मानवता और संवेदनशीलता दम तोड़ती नज़र आती है , यह सब एक कौम के विकास की असफलता को ही दर्शाता है .
~दीपक

Sunday, 3 July 2022

जिसके पूरा होने का भरोसा ऐसा है ....जो कभी खत्म होने का नाम नहीं लेता ...

यह उस सफ़र जैसा है जो लगता है कि बस अगले कुछ ही दिनों में पूरा हो जाएगा लेकिन कुछ रोज चलकर बाहर देखो तो दिखता है कि अभी एक लंबी दूरी बची हुई है । कभी कभी तो इस बात का भी संशय होने लगता है कि हम सही दिशा में आगे बढ़ भी रहे हैं या नहीं । 
कितनी ही चीजों, इच्छाओं, आकांक्षाओं को उस एक मंज़िल के नाम पर , उस एक सफ़र के पूरा होने के बिनाह पर हम मन के किसी कोने में दबाते जाते हैं । कभी मन ऊबता है तो लालच देते हैं, सफ़र के पूरा होने की खुशी का। कभी मन बहकता है तो वापस उसे एक समयसीमा की डोर पकड़ा देते हैं । पर कभी कभी नकारात्मकता भी हावी होने लगती है जो याद दिलाती है उन असफलताओं की, ऊबते दिनों की, समझौते भरी रातों की । फिर भी ढेर सारी उलझनों के बीच हमें एक किनारा थाम के चलते तो रहना ही है ...क्योंकि एक सुबह जब चलना शुरू किया था तो पीछे एक अहम वजह थी । एक सपना देखा था । जो आज भी जेहन में जिंदा है और जिसके पूरा होने का भरोसा ऐसा है ....जो कभी खत्म होने का नाम नहीं लेता । 
~दीपक

Thursday, 7 April 2022

हाँ ! अब मैं तैयार हूं; पूरी तरह...

पाँचवा महीना चल रहा है । अब दिन ब दिन महसूस होने लगा है कि मेरे अंदर एक नन्हीं सी जान धीरे धीरे आकार ले रही है। मेरा अपना हिस्सा, मेरे खून और सासों के सहारे पलता और बढ़ता । ऊँघती दोपहरों और खाली शामों में अब काफी वक़्त ऐसा होता है जब मैं इस आने वाले भविष्य के बारे सोचते हुए बिताने लगी हूँ। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते जब इसके अस्तित्व के लिए मुझे कई दिन अस्पतालों के चक्कर काटने पड़े थे । पर यह ममत्व है या अपने अंश से गहरा जुड़ाव कि मैं किसी भी हद तक जाकर उसके अस्तित्व तो संजो लेना चाहती हूँ।
 
जैसे जैसे वक्त बीतता जा रहा एक और खयाल है जो अंदर अंदर कहीं न कहीं मुझे सोचने पर विवश करता करने लगा है । वही सवाल जिसका सामना शायद इस अवस्था में आकर  हर मध्यवर्गीय औरत किसी न किसी अनुपात में करती ज़रूर है । अभी कल ही की बात है अपनी पुरानी स्कूल वाली दोस्त मिल गयी थी । बात करते करते वह एकाएक बोल पड़ी "देखना इस बार तुम्हारा परिवार पूरा हो जायेगा, मैं कहे देती हूं" । मैंने उस वक़्त जवाब में कुछ कहा नहीं ,बस थोड़ा मुस्कुरा दी लेकिन एक सवाल ज़रूर अपने ज़ेहन में ढोने लगी ; सच में- लड़का या लड़की ? 
सच कहूँ तो अपनी 5 साल की छोटी सी बेटी की बातें सुनती हूँ तो कहीं न कहीं मैं भी यही चाहती हूँ कि इसकी अपने भाई के साथ रक्षाबंधन मनाने की ख़्वाहिश पूरी हो जाय । पर साथ ही साथ  कभी कभी एक डर भी उभर आता है कि अगर वह नहीं हुआ जो सब चाहते हैं तो ? बहुत सोचने पर कभी कभी मन करता है कि क्यूँ न कन्फर्म(diagnosis)  कर लिया जाय फिर अगले ही पल अपनी इस सोच पर पछतावा भी होने लगता है ।  मैं अपने ही शरीर के हिस्से,अपने अंश को लेकर इतना निर्दयी कैसे हो सकती हूं ? नहीं कुछ भी हो यह तो पूरी तरह गलत है, अन्याय है । 
आज सुबह  मैं छत पर बनाये छोटे से गार्डन में बैठी चाय पी रही थी । गर्मियां के दिन धीरे धीरे दस्तक़ दे रहे हैं । इसलिए सुबह की ठंडी हवा भी धीरे धीरे गर्म होने लगी है । गार्डन के एक कोने में टीन की शेड में एक कबूतर ने अंडे दे रखे है । मादा कबूतर अब दिन रात उसकी रखवाली में लगी रहती है । खयालों में डूबे मेरी नजऱ उस मादा कबूतर के ऊपर ठहर गयी । मैं सोचने लगी क्या इस बात से कुछ भी फर्क़ पड़ता है कि इस अंडे से पैदा होने वाली संतति का स्वरूप क्या होगा ? क्या एक माँ अपने ममत्व, लगाव या जुड़ाव में कोई भी अंतर महसूस करेगी ? बहुत सोचने पर भी मेरा उत्तर नकारात्मक रहा । मैंने अपने आप से एक सवाल किया ...फिर क्यूँ? क्यूँ अपने चेतन और अवचेतन मनःस्तर पर एक माँ इन अंतरों को अपने जेहन में पनपने दे, समाज के उपजाए इस झूठे अन्तरों को क्यूँ महत्व दे?  प्रकृति ने एक माँ के रूप में हमें अद्भुत क्षमताएं दी है। हम सक्षम है अपने जैसे एक नई संतति को पैदा करने में, अपने खुद के शरीर के खून,पानी और सासों से सींचकर एक नई पौध तैयार करने में । फिर क्यूँ सोचना ? क्यूँ ढोना समाज के थोपे अव्यहारिक बोझों को ?
हाँ ! अब मैं तैयार हूं, पूरी तरह; अपने आने वाले कल को स्वीकार करने  के लिए चाहे उसका स्वरूप कुछ भी हो । मैं तैयार हूँ; अपने नेह- छोह और असीम प्यार के साथ, स्वागत करने के लिए अपने आने वाले नन्हें सदस्य का ।  

~दीपक