Tuesday, 22 August 2023

मां, शहर और गांव ...

माँ कुछ दिनों के लिए मेरे पास आई है । गांव से शहर ।  पहले तो ट्रेन का अकेला सफ़र और उस पर शहर के अपने जीवन और यहां के तौर तरीकों के प्रति उनका डर या यूं कहूं की संकोच। मेरे बहुत मिन्नतों और भरोसा दिलाने  के बाद मां आने को तैयार हुई । 
आते ही मम्मी ने सबसे पहले सफाई अभियान शुरू किया । उनके आदेश पर cook की छुट्टी हम पहले ही कर चुके थे सो आते ही उन्होंने किचन संभाल लिया । बर्तन, चूल्हे और अन्य सभी सामानों को मानों नया जीवन मिल गया । चीनी, चायपत्ती से लेकर आटा, दाल चावल सब डिब्बाबंद नज़र आने लगे । सफाई के प्रति हम सबके ( मेरे और मेरे रूममेट) के लिए आए दिन नए नए circular जारी होने लगे। सब मिलाकर हमारा फ्लैट अब घर टाइप फील देने लगा । 

पिछले काफी समय से मम्मी की तबीयत खराब रहती है । उनके अपने पास बुलाने की बड़ी वजह भी यही थी कि उनको किसी अच्छे डॉक्टर को दिखाया जाय । डॉक्टर की appointment , tests और reports के चक्कर में कभी ऑटो, मेट्रो और पैदल मम्मी भी धीरे धीरे शहर को जानने की शुरुआत कर चुकी हैं । 

शुरुआती कुछ दिन तो वह मेरे सहारे इस छोटी सी अनजान दुनिया में अपने आप को ढालने की  कोशिशें करती रहीं लेकिन जल्द ही उनको अजीब लगने लगा । मुझे लगा गांव का बड़ा सा घर और उससे भी बड़ा दुआर ( हमारे यहां घर के सामने फैले बड़ी जगह को दुआर बोलते हैं) और यहां दो छोटे-छोटे कमरे का फ्लैट ....कुछ दिन रहेंगी तो आदत हो जायेगी । मैंने पास का छोटा सा मंदिर और पार्क भी मम्मी को दिखा दिया । सोचा इन सबके सहारे मम्मी का मन लग जायेगा । 

एक शाम लाइब्रेरी से वापस आया तो मम्मी थोड़ी रुआंसी सी दिखी । मेरे पूछने पर वह बस इतना बता पाई की उनकी तबीयत अच्छी नहीं है । उसी शाम बहन का कॉल आया वह बोली मम्मी को लेकर वापस आ जाओ उन्हें वहां अच्छा नहीं लग रहा । उस रात मम्मी के पैर दबाते समय जब मैंने मम्मी के परेशानी जानने को उनसे बातें शुरू की तो पता चला कि उनको समस्या छोटे कमरों या छोटी जगह से नहीं है, दिक्कत यह है की यहां के अजनबीपन से वह ऊबने लगी है । गांव में भले ही चौबीसों घंटे बिजली न रहती हो, एक फोन कॉल पर किसी भी मन चाही चीज delivery ना होती हो लेकिन वहां की आबो हवा में अपनापन है, समरसता है । वहां घर के बाहर भी निकलो तो  पायलागी और खुश रहो के रूप में ही सही अंदर के अजनबीपन को दूर करते जानने पहचानने वाले चेहरे हैं ।

कितना अजीब है न ! इस उपभोक्तावादी युग में गांव का हर नौजवान आज शहर जाना चाहता है । यहां तक कि वह अपने गांव को शहर बन जाते देखना चाहता है । वह आधुनिकता की दौड़ में खुद को स्थापित करने को एक कृत्रिमता से भरे जीवन और  भाग-दौड़ को स्वीकारता जा रहा है, जाने अनजाने ही सही उसका आदी होता जा रहा है । लेकिन एक वर्ग  ऐसा भी है  जो शायद गांव को गांव ही रहने देना चाहता है क्योंकि उसकी जड़ें गांव की जिंदादिली और समरसता में ही बसती है ...
~दीपक 

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