Friday, 2 May 2014

सिमटती खुशियाँ........

शाम ढलने को थी .....
पंछियों के झुण्ड भी वापस लौटने लगे थे
सूरज किरणो को समेटते बड़े जल्दी में लग रहे थे
जैसे सूरज कि माँ उन्हें बुला रही हो '' आ बेटा स्वेटर पहन ले''
बचपन में ठंडी कि हर एक शाम को ऐसे ही बुलाती थी न माँ ......कभी कभी हम खेल छोड़कर न आने कि भी जिद करते .....
माँ दौड़ाती .....और हम भागते भागते दूर निकल जाते
बड़े अजीब थे न गाँव में बिताये वो पुराने सुकून भरे दिन .....हरे भरे खेतो और तालाबों के किनारे बीते दिन।
जहां कभी दशमी के मेले कि जलेबियों कि मिठास में  हर कोई डूबा मिलता तो कभी रामायण कि चौपाइयों में।
त्योहारों कि धूम तो बड़ी ही निराली थी दीवाली में मिटटी के घर मिटटी के दियो से जगमग हो उठते तो होली में रंगों कि प्यार भरी बौछार में लोग डूब से जाते ....
सावन का महीना तो लाजवाब खुशियां लाता ....झूलों कि भरती उड़ाने ....और कजरी कि धुन मन को एक अजीब आकर्षण से बाध लेती थी |
गावों में अब भी त्यौहार आते है ...पर वो पहले सी रौनक कही खो सी गयी है |
गावों में ज्यादा लोग नही रहें |
असल में बढ़ते पैसों कि माँग ने लोगो को शहरों कि तरफ भागने को मजबूर कर दिया है ..जहाँ मध्यम वर्ग के त्यौहार ऊँचे ऊँचे अपार्टमेंट्स के छोटे छोटे कमरों में सिमट के रह जाते हैं .......
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दीपक

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