Friday, 15 December 2023

आगे बढ़ते रहने का नाम है जीवन या कुछ अधजिए, अचानक छूट गए को याद करना, महसूस करना ...

बहुत कुछ पीछे छोड़कर भी आगे बढ़ते रहने का नाम है जीवन या कुछ अधजिए, अचानक छूट गए को याद करना, महसूस करना है जीवन l अतीत और वर्तमान का द्वंद्व है जीवन या ओट से हल्के झलकते भविष्य या उसके सपनों को ढोना है जीवन l
जब वर्तमान खुशगवार होता है तो शायद अतीत धुंधला जाता है l लेकिन यह सच स्वीकार ही करना पड़ता है की वह पूरी तरह से कभी खत्म नहीं होता l हल्की ठंडी में गुनगुनी धूप सेंकते हम कुछ अच्छे पलों को याद करके कभी भी मुस्कुरा सकते हैं l सुबह सुबह चाय के कप की गर्मी को हथेलियों के बीच रखे कुछ ठंडे पड़ गए रिश्तों की गर्माहट को महसूस करने की कोशिश कर सकते हैं l अतीत उस शहर में अचानक लौट जाने जैसा होता है जहां आपने कभी वर्षों बिताया हुआ था लेकिन बदलाव और समय के प्रवाह ने आपको उसी अपने और अपनों के शहर में अजनबी बना दिया हो l आप अजनबीयत को ओढ़े बहुत देर तक जानी पहचानी गलियों, चौराहों पर भटकते हैं लेकिन जल्द ही वर्तमान में भाग आने को मजबूर होने लगते हैं l हम photographers की भाषा में एक term है "recreating the moments" l किसी पुरानी फोटो को दिखाकर client अक्सर ये term यूज करते हैं l हम client का दिल रखने को न भले न करें पर हमें अच्छे से पता होता है कि बहुत मेहनत से click और एडिटिंग के बाद भी हम उन पुराने पलों की गर्माहट वर्तमान में नहीं भर सकते वैसे ही जैसे पुरानी डायरी के पन्नो के बीच छिपाकर रखे गुलाब की पंखुड़ियों किसी बीते हुए वक्त के उस रंग, उस खुशबू, उस रोमांच को वापस नहीं कर सकते ...
~दीपक

Tuesday, 22 August 2023

मां, शहर और गांव ...

माँ कुछ दिनों के लिए मेरे पास आई है । गांव से शहर ।  पहले तो ट्रेन का अकेला सफ़र और उस पर शहर के अपने जीवन और यहां के तौर तरीकों के प्रति उनका डर या यूं कहूं की संकोच। मेरे बहुत मिन्नतों और भरोसा दिलाने  के बाद मां आने को तैयार हुई । 
आते ही मम्मी ने सबसे पहले सफाई अभियान शुरू किया । उनके आदेश पर cook की छुट्टी हम पहले ही कर चुके थे सो आते ही उन्होंने किचन संभाल लिया । बर्तन, चूल्हे और अन्य सभी सामानों को मानों नया जीवन मिल गया । चीनी, चायपत्ती से लेकर आटा, दाल चावल सब डिब्बाबंद नज़र आने लगे । सफाई के प्रति हम सबके ( मेरे और मेरे रूममेट) के लिए आए दिन नए नए circular जारी होने लगे। सब मिलाकर हमारा फ्लैट अब घर टाइप फील देने लगा । 

पिछले काफी समय से मम्मी की तबीयत खराब रहती है । उनके अपने पास बुलाने की बड़ी वजह भी यही थी कि उनको किसी अच्छे डॉक्टर को दिखाया जाय । डॉक्टर की appointment , tests और reports के चक्कर में कभी ऑटो, मेट्रो और पैदल मम्मी भी धीरे धीरे शहर को जानने की शुरुआत कर चुकी हैं । 

शुरुआती कुछ दिन तो वह मेरे सहारे इस छोटी सी अनजान दुनिया में अपने आप को ढालने की  कोशिशें करती रहीं लेकिन जल्द ही उनको अजीब लगने लगा । मुझे लगा गांव का बड़ा सा घर और उससे भी बड़ा दुआर ( हमारे यहां घर के सामने फैले बड़ी जगह को दुआर बोलते हैं) और यहां दो छोटे-छोटे कमरे का फ्लैट ....कुछ दिन रहेंगी तो आदत हो जायेगी । मैंने पास का छोटा सा मंदिर और पार्क भी मम्मी को दिखा दिया । सोचा इन सबके सहारे मम्मी का मन लग जायेगा । 

एक शाम लाइब्रेरी से वापस आया तो मम्मी थोड़ी रुआंसी सी दिखी । मेरे पूछने पर वह बस इतना बता पाई की उनकी तबीयत अच्छी नहीं है । उसी शाम बहन का कॉल आया वह बोली मम्मी को लेकर वापस आ जाओ उन्हें वहां अच्छा नहीं लग रहा । उस रात मम्मी के पैर दबाते समय जब मैंने मम्मी के परेशानी जानने को उनसे बातें शुरू की तो पता चला कि उनको समस्या छोटे कमरों या छोटी जगह से नहीं है, दिक्कत यह है की यहां के अजनबीपन से वह ऊबने लगी है । गांव में भले ही चौबीसों घंटे बिजली न रहती हो, एक फोन कॉल पर किसी भी मन चाही चीज delivery ना होती हो लेकिन वहां की आबो हवा में अपनापन है, समरसता है । वहां घर के बाहर भी निकलो तो  पायलागी और खुश रहो के रूप में ही सही अंदर के अजनबीपन को दूर करते जानने पहचानने वाले चेहरे हैं ।

कितना अजीब है न ! इस उपभोक्तावादी युग में गांव का हर नौजवान आज शहर जाना चाहता है । यहां तक कि वह अपने गांव को शहर बन जाते देखना चाहता है । वह आधुनिकता की दौड़ में खुद को स्थापित करने को एक कृत्रिमता से भरे जीवन और  भाग-दौड़ को स्वीकारता जा रहा है, जाने अनजाने ही सही उसका आदी होता जा रहा है । लेकिन एक वर्ग  ऐसा भी है  जो शायद गांव को गांव ही रहने देना चाहता है क्योंकि उसकी जड़ें गांव की जिंदादिली और समरसता में ही बसती है ...
~दीपक 

Wednesday, 2 August 2023

एक कौम के विकास की असफलता..

आज की इंसानी कौम लाखों करोड़ो वर्ष पहले जानवर हुआ करती थी . दो नहीं चार पैरों वाली . अपनी जरूरत कहें या जिद! किसी न किसी नाते इस कौम ने अपने दो पैरों को हाथ बना लिया . प्रकृति  इसमें सहयोग में थी या वह विरोध में इस बात को पुख्ता तौर पर साबित कर पाना आसान नहीं. पर एक बात जरूर है कि इसने इस कौम के जरूरत के हिसाब से नए प्रयोगों को करने और सीखने की ललक को आगे ही बढ़ाया. इंसानी कौम जो मूलतः जानवर ही थी धीरे धीरे सामाजिक विकास के सहारे सभ्य होती गई. इसने नियम कानून बनाए , तौर तरीके विकसित किए ताकि एक सभ्य और सुसंस्कृत समाज विकसित हो सके .
 
जानवरों और इंसानी कौम में फ़र्क क्या है ... फर्क है सिर्फ बुद्धि और बल के अनुपात का . और आज भी जब-जब यह अनुपात अपना संतुलन खोता है इंसान वापस जानवरों जैसा व्यवहार करने लगता है . चाहे वह खबर किसी नवजात के रेप का हो या किसी अपने की दुर्दांत हत्या और शव के क्षत विक्षत करने  या जातीय द्वेष के बदले एक भीड़ के द्वारा महिलाओं का घिनौना अपमान हो . ऐसे अन्य जघन्य मामले जहां मानवता और संवेदनशीलता दम तोड़ती नज़र आती है , यह सब एक कौम के विकास की असफलता को ही दर्शाता है .
~दीपक