Saturday, 26 June 2021

मैं अक्सर खो जाने के सपने देखता हूँ...

हम ज़िन्दगी में ढेर सारी उम्मीदों और कल्पनाओं के बीच उलझते रहते हैं | ये उलझनें कभी ज्यादा तो कभी कम भी हो सकती है लेकिन जीवन है तो कुछ न कुछ उलझने भी रहती जरूर हैं | आपाधापी रहती है  लेकिन इसी आपाधापी के बीच जीवन जीना और वो भी संतुष्टि और सुकून के साथ; ये एक कला है जो इंसान चाहते न चाहते सीख ही जाता है | जो नहीं सीख पाते वो अटक जाते हैं किसी अतीत के ख्याल या भविष्य के सपने के बीच | 
मैं अक्सर खो जाने के सपने देखता हूँ | क्षितिज की ओट में या आसमान में छाए बादलों के बीच या सागर की गहराई में | लेकिन अगले ही पल मेरा जी घबराने लगता है | अकेलेपन के डर से, जिम्मेदारियों के दबाव से या महत्वकांक्षाओं के भार से | मैं फिर सोचने लगता हूँ कि मैं खोना क्यूँ चाहता हूँ | क्यूं ; इस खूबसूरत दुनिया से, आसपास से, लोगों से; अनजान बन जाना चाहता हूँ , दूर चला जाना चाहता हूँ | फिर वापस मुझे याद आता है अपने जीवन के हर रिश्ते का वो पहला दिन जब अजनबीपन ही सबसे बड़ी पहचान होती है | वक्त के साथ ये अजनबीपन अपना रंग खोता जाता है और कोई अलग रंग हमें आपस में रंग कर एक कर देता है | 
पिछली कुछ रातों से ख्वाब फिर से उसके नाम हो रहें हैं | वह हँसती हुई आती है जैसे कोई रंगीन तितली पहली बार सैर को निकली हो , मेरे करीब आकर बैठ जाती है  और मैं फिर से उसी अतीत में पहुँच जाता है जहाँ हम साथ बैठ कर रंगीन तितलियों और फूलों को निहारा करते थे | मुझे उसकी मासूमियत से प्यार था और साथ रहते रहते कब उसकी आदत लग गयी पता ही नही चला | उसे मुझसे प्यार था या नहीं मैने कभी पूछा नहीं या सच कहूँ तो पूछने की जरूरत नहीं समझा, उस दिन भी नहीं जब उसने मुझे बताया अब उसे किसी और बगीचे के तितलियाँ और फूल ज्यादा अच्छे लगने है  | 
~दीपक

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