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आज शहर की आबोहवा में पढ़े लिखे न जाने कितनों की बहस में महिला सशक्तिकरण की गूंज उठ रही है । महिलाओं का छोटा समूह जिसने शिक्षा के बल पर अपने असल अस्तित्त्व को जाना और समझा वह आज एक अलग नजर से दुनिया को देख और समझ रही है । लेकिन वास्तविकता की थोड़ी और तह में जाय तो एक और तस्वीर भी दिखती है । आज की महिलाओं की लड़ाई सिर्फ पुरुष वर्ग के बराबर खड़े होने की ही नहीं है इनकी एक लड़ाई लंबे अरसे से उस सम्मान और प्यार के लिए भी है,जिसके लिए कभी कभी उनके अन्तः मन को सिसकना तक पड़ता है |
एक महिला जो इस पढ़े लिखे वर्ग से किसी वजह से पिछड़ी रह गयी वह भी एक अरसे से ऐसी लड़ाई में शामिल होना चाहती है। एक संयुक्त परिवार में इस वर्ग के ऊपर ढेरों जिम्मेदारियां होती है, कुछ जिम्मेदारियां इसलिए भी बढ़ जाती हैं क्योंकि वो पढ़ी लिखी नहीं है कुछ बातों पर तर्क नहीं दे सकती या उन्हें तर्क देने का अधिकार नही होता है । इन सारी जिम्मेदारियों को ढोती वह जो चाहती हैं वह है बस प्यार और सम्मान | पर ज्यादातर जगहों पर इसके लिए भी उन्हें लड़ना पड़ता है । एक ऐसी लड़ाई जिसमें उन्हें न बोलने का अधिकार होता है ना अनशन करने का क्योंकि पुरुषत्व की दृढ़ता के आगे उन्ही के वर्ग का एक हिस्सा भी उनका दुश्मन बन बैठता है । वह उन्हें मर्यादाओं की कश्में देता है, उनके दबे रहने का अतीत याद दिलाता है। अंततः इन्ही बेमतलब की मर्यादायों का भार उनकों और उनकी अंदरूनी आवाज को भी दबा देता और उनके लिए प्यार और सम्मान को भी सपना बना देता है जिसकी वो असल हकदार होती हैं।
~दीपक
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