Sunday, 8 June 2014

अँधियारों के दीपक.......




अँधियारों के दीपक.......



वो गर्मी की शाम थी , लू भरी हवावों वाली | शाम के करीब 5 बजने को थे पर सूरज अब भी काफी जोशोखरोश से चमक रहा था |
मेरे कदम मेरे दो दोस्तों के साथ किसी अनजानी राह पर चले जा रहे थे | मुझे नहीं पता था की थोड़ी देर में  मै एहसासों के अजीब दौर से गुजरने वाला था , एहसास जो मेरे दिल में अपनी  ढेर सारी जगह बनाकर  मुझे रोमांचित करने वाले थे|
हाईवे से उतरकर , गंदे बहते नाले के बगल से , मक्खियों से भरी गलियों से होते हुए अब हम एक बस्ती के सामने थे ; बस्ती जिसमें टूटी फूटी कई सारी  झोपड़ियाँ थी | फटे –पुराने कपड़ों से बनी कुछ झुग्गियों में आर –पार दिखाई दे रहा था , कुछ घास –फूस  की छत अब सूरज की तपन और बारिश की बूदों  को रोकने पूरी तरह असमर्थ दिख रही थी |
मेर दोस्त ने  झुग्गियों के बीच गुजरते  हुए  आवाज लगाना शुरू किया “ कुंदन , रेखा , प्रकाश.......चलो बाबु कापियां निकालो , पढने चलना है.....चलो चलो”
धीरे –धीरे उत्तर में कई सारी कोमल आवाजे उभरने लगी “ओके भैया”.....”एस भैया” ....”आ रहे है भैया”|
माहौल में कुछ औरतों की भी आवाज थी “जाओ रे रेखा भैया लोग पढ़ाने आये हैं”  | मै स्तब्ध सा अपने दोस्त के साथ-साथ चल रहा था |
देखते –देखते हम करीब 10-12 नन्हे क़दमों के सहारे खड़े , नन्हे कोमल हाथों में कापियां और पेन्सिल  थामे , गोल –मटोल छोटी आँखों के सामने थे | थोड़ी देर में मै अपने इंजीनियरिंग कॉलेज में दोस्तों के साथ की मस्तियों और हाईवे की  चहल –पहल को पूरी तरह भूल सा गया था | मेरी नज़रें  फटे –पुराने कपड़ों में लिपटे बच्चों के मासूम चेहरों पर टिक सी गयी थी | उनके आँखों की चमक मुझे अपनी तरफ आकर्षित कर रही थी | उन आँखों की चमक देख मुझे अपने बचपन के दिन याद आ गये जब माँ ने सजा-धजा के पहली बार मुझे स्कूल भेजा था | पर अफ़सोस इन नन्हे-मुन्हो के नसीब में अभी स्कूल नहीं थे |            
मेरा  दोस्त उनमें से एक की तरफ देखते हुए बोला “ प्रकाश उस दिन तुम चटाई लाये थे न , जाओ आज  फिर ले आओ”
 “वो तो झुग्गी में लग गयी भैया आज धूप ज्यादा लग रही थी” इस मासूम सी आवाज में कुछ निराशा थी | न जाने क्यूँ मै कांप गया , जैसे एक बिजली दौड़ गयी हो मेरे पूरे शरीर में , मेरे रोंगटे खड़े हो गये | ये वही देश है जहाँ बच्चों के  पढ़ने –लिखने, उनके खुशियों के लिए न जाने कितने फिजूलखर्चे किये जाते  है , और यहीं पर कुछ ऐसे भी बच्चे है जिन्हें स्कूल तो नसीब नहीं बल्कि उनकी अन्य आवश्यकताओं की भी पूर्ति नहीं हो पाती है |
हमने पढ़ाना शुरू किया कुछ को गिनतियाँ (tables) सिखाई , कुछ को A-Z सिखाया , कुछ को जोड़ना , कुछ को घटाना सिखाया | मै बड़ा खुश था बच्चे चीजो को बड़ी जल्दी सीख और समझ रहे थे जैसे उनमे भूख थी चीजो को सीखने की ,उनमे आपस में एक अजीब सा कैम्पटीशन था चीजो सबसे पहले करके दिखाने का | फिर होमवर्क दिए गए | अब हम  चलने को थे | बच्चें हाथ हिलाकर “बाय” कहते हुए जाने लगे | मेरी  नज़रें अब भी उनकी मासूम आँखों पर टिकी  थे जाते जाते वो मुझसे न जाने कितने सवाल कर रहे थे |
क्या हमारे लिए इस देश में रोटी, घर और शिक्षा नहीं है ? क्या हमारा यही  दोष  है यही कि  “हम  गरीब घर में पैदा हुए हैं , हमारे माँ-बाप अशिक्षित है” |
सारे सवालों का जवाब देने में तो मै असमर्थ हूँ पर एक सवाल करता हूँ मै आप सबसे क्या हम इतना भी नहीं कर सकते जिससे इन मासूमों में शिक्षा रुपी ज्योति जल सके और अन्धेरें में डूबी इन बस्तियों को  रौशनी फैलाने वाले कुछ दीपक मिल सके |
तहे दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ उनका जिन्होंने हमें ये रास्ता दिखाया , जिन्होंने हमें हौसला और मौका  दिया कुछ बेबस , उदास चेहरों पर ढेर सारी खुशियाँ और कुछ सूखे होठों पर खिलखिलाती मुस्कान बिखेरने का ............
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(dedicated to NGO “HUSC”)
…………दीपक

 

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