Thursday, 2 October 2014

पुरानी शामों की याद..


तारीख बदल गयी ,फिर एक नयी सुबह हुई | धीरे –धीरे धूप हुई , वातावरण थोड़ा गर्म हुआ और फिर शाम ढल आई | कितना कुछ बदल गया ;  पर कुछ है  जो अब तक तक नहीं बदला है  ? कुछ है जो  अब भी बड़ी देर से कहीं ठहरा हुआ है  , कुछ है जो किसी याद में बड़ी देर से डूबा हुआ है | जैसे –जैसे वक्त बीतता जा रहा है , शाम ढलती जा रही है ; ऐसा लग रहा है जैसे  ये मन किसी पुरानी शाम की यादों में खोता जा रहा है | दोष मन का नहीं है , शायद दोष इस मौसम  का  है | हल्की सर्द और गर्मी से भरे इस मौसम में दूर से उठती हल्की हवायें जब तन –बदन से टकराती है जो अपने साथ लाये न जाने कितने जाने –पहचाने एहसास जेहन में छोड़ कर  चली जाती है | हवायें तो गुजर जाती है पर मन उन जाने –पहचाने एहसासों में डूबकर रह जाता है |
अब गाँव में रामलीला का मंचन शुरू हो गया होगा ,  गाँव के छोटे से बाजार में देवी माँ की मिट्टी की ढेर सारी मूर्तियाँ सज गयी होंगी ,रात के अँधेरे में टिमटिमाते बिजली के झालरों और दियों की रौशनी में लोग दुर्गापूजा देखने जाने लगे होंगे .... और हाँ ! बाजार में चाट , गोलगप्पे और गरमागरम जलेबियों की दुकाने भी लग गयी होंगी |
सच है न ! मन जब पुरानी यादों में गुम होता है तो कितने सारे चित्र स्मृति पटल पर उभर के आने लगते है | मन हुआ कि कुछ पुरानी तस्वीरें देख ली जाय | अल्बम निकाला , बड़ी देर तक पलटता रहा|
उंगलियों के सहारे  पेज पलटते गये और पुराने वक्त की न जाने कितनी यादों पर जम चुकी धूल नजरों के सहारे  झड़ती रही | अचानक एक तस्वीर पर चलती उंगलियाँ थोड़ी देर के के लिए थम गयी | तस्वीर थोड़ी धुंधली हो गयी थी ,शायद बड़े वक्त से एकतरफा रखे रहने की वजह से ; पर चेहरे साफ –साफ नज़र आ रहे थे | पापा –मम्मी , मै ,मेरी बड़ी बहनें और मेरा छोटा भाई | पापा के कहने पर हमने ये तस्वीर खिचवाई थी, हाँ वहीँ  ! अपने बाज़ार वाले अमित स्टूडियो में | अरे याद आया..... तस्वीर खिचवाने के के बाद पापा ने सबको चाट और गरमागरम जलेबियाँ भी खिलाई थी और छोटे भाई के लिए गुब्बारे और बाँसुरी भी खरीदी थी |
वक्त बीतता गया , हम बड़े होते रहे, बहनों की शादी हो गयी ,सब अपने ससुराल चली गयी और हम भी मम्मी –पापा को गाँव में छोड़ बड़े शहर में कुछ सीखने चले आये |
वक्त अपनी रफ़्तार से चलता रहता है , सब कुछ अपनी रफ़्तार से बदलता रहता है पर ये मन कभी –कभी ठहर जाता ; उसी  पुराने वक्त की यादों में , उन पुरानी शामों की यादों में ......................
-दीपक त्रिपाठी
 (३/१०/१३)          

Saturday, 20 September 2014

नाराज़ खुशियाँ

लिखते लिखते.........................
कुछ दिनों से खुशियाँ कहीं गायब हो गयी हैं | पता नहीं कहाँ गयी ? बिना बताये , बिना कुछ शिकायत किये , बिना नाराज़गी जाहिर किये | समझ नहीं आता उन्हें कहाँ ढूँढू , उनके बारे में किससे पूछूँ | एक अजीब बात और भी है  वो खुद तो गायब हो ही गयी और साथ में मुस्कान को भी ले गयी | अब उदासी को तो जैसे मौका मिल गया है | हर वक्त जकड़े रहती है | मै इनसे जितना दूर होना चाहता हूँ ये उतना ही मेरे और करीब आती जाती है |
सच है न दोस्तों ! कुछ लोग आपकी जिन्दगी में इतना करीब हो जाते हैं कि उनके बिना आपको अपनी खुशियाँ , अपनी हँसी सब कुछ अधूरी लगती है | वो जब आपके पास होते हैं तो लगता है ....हाँ ..अब सब कुछ है | और जब वो नहीं होते तो ऐसा लगता है कि आपकी नज़रों में एक तलाश भरी रहती है | दोस्तों हो सके तो ऐसे लोगों से दूर मत जाना जिनकी खुशियाँ आपसे है .........जिनके होंठों पर तैरती  मुस्कराहट की वजह आप हैं ......

-दीपक       

Monday, 25 August 2014

एक चोरी


कभी –कभी रात के अधूरे ख्वाब दिन में पूरे हो जाते हैं | आज उसे देखा तो ऐसा लगा जैसे बीती रात का ख्वाब हकीकत में आंखों के सामने उतर आया हो | एक पल को जी हुआ की देर तक उसके ताजगी से भरे चेहरे को निहारता रहूँ , उसकी आंखों में अपनी छवि को तलाशता रहूँ | चोरियाँ बहुत की थी बचपन से आज तक , जैसे कभी मिठाइयाँ चुराकर खाई तो बहन के गुल्लक से छुट्टे पैसे निकाले कभी किसी  के बगीचे से आम चुराकर खाए ऐसी ही न जाने कितनी | अनेको बार मै रंगे हाथों पकड़ा भी गया  |आज भी वही हुआ | पर आज की चोरी अजीब थी | मै अपने आस –पास से नज़रें चुराकर उसे देख ही लेता  | न जाने कितनी देर तक ये सिलसिला चलता रहा | पर मै ज्यादा देर तक कामयाब न रह सका | उसकी आंखों ने मेरी यह चोरी आख़िरकार पकड़ ही ली | पर आज पहली मै रंगे हाथों पकड़े जाने के बाद भी बहुत खुश था मै ................
(.........लिखी जा रही कहानी “मेरी जिन्दगी-मेरा प्यार”  से)

  

Friday, 15 August 2014

आजाद भारत ..मेरी बात.....


 

मेरी बात.....

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आज के शुभ अवसर पर सर्वप्रथम मैँ भारतभूमि और आसमान मेँ लहराते तिरँगेँ
को सहस्रो बार नत शीश से प्रणाम करता हूँ । आगे कुछ कहने से पूर्व मै उन भारतमाता के वीर सपूतोँ को तहेदिल से श्रद्धाँजंलि देते हुए सत्-सत् नमन करता जिनके अतुल्य
बलिदान के कारण आज हम आजाद साँसे जी रहे है..........


"है नमन उनको कि जो यशकाय को अमरत्व देकर,
इस जगत में शौर्य की जीवित कहानी हो गये है......
है नमन उनको कि जिनके सामने बौना हिमालय,
जो धरा पर गिर पडे पर आसमानी हो गये है...."
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दोस्तो आज आजाद भारत को 67 साल हो गये है लेकिन क्या इन सालो मे हमने सही आजादी हासिल की है? क्या देश की आजादी के लिए सर्वस्व बलिदान करने वाले वीर सपूतोँ का समानता ,एकता और एक स्वस्थशासनसत्ता का सपना पूरा हो रहा है?
शायद नहीँ।
देश की वर्तमान स्थिति पर दुष्यंतजी की कुछ पंक्तियाँ याद आती है....
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"मेरे चमन में कोई नशेमन नहीं रहा
या यूँ कहो कि बर्क़ की दहशत नहीं रही
हमको पता नहीं था हमें अब पता चला
इस मुल्क में हमारी हक़ूमत नहीं रही


 

हिम्मत से सच कहो तो बुरा मानते हैं लोग

रोरो के बात कहने की आदत नहीं रही....."
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हाँ! आजादी ने उपनिवेशवाद की विदाई का आधार तो जरुर तैयार किया किन्तु आज समाजवाद के तर्ज पर आजादी का लक्ष्य अभी भी अधूरा लगता है। इस तेज विकास और कथित आजादी ने अमीर और गरीब के बीच की असमानता की खाइयोँ को और गहरा कर
दिया है।
वर्तमान नेताओ(कुछ को छोड़कर) पर टिप्पणी शायद ब्यर्थ है।आज हर कोई इनकी तर्ज से वाकिब है। अपने एकाउंट्स और ऐशोआराम मे वृद्धि के लिए जनता की रोटी के साथ ये खेलते तो है ही साथ-साथ  जरुरत पड़ी ये उसे बेचने से
नहीँ चूकते......
धूमिल जी ने ठीक ही कहा है....


"
एक आदमी रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है , न रोटी खाता है
वह सिर्फ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूं -
यह तीसरा आदमी कौन है ?
मेरे देश की संसद मौन है ।"
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दोस्तो ! सोशल नेटवर्क्स या कहीं पर कुछ अच्छा राष्ट्र प्रेम से ओतप्रोत कुछ शब्द लिख देने या बोल देने मात्र हम देशप्रेमी और देश सही मायनो मेँ स्वतन्त्र
माना जाएगा..... जब तक कि देश मेँ लाखोँ लोग इलाज के अभाव मेँ दम तोड़ दे रहे
होँ...हर साल हजारोँ भूख से मर जाते होँ करोड़ो स्कूल तक न पहुँचते
होँ..लाखोँ बच्चे अपने परिवार का पेट पालने के लिए खेलने खाने की उम्र मेँ ढाबोँ और
दुकानोँ पर 1000-1200 की नौकरी कर रहे हैँ |
ऐसे मेँ हमे ये देखना है क्या हम इमानदारी से देश के प्रति अपने दायित्वोँ का निर्वहन कर रहे हैँ ?
कुछ पंक्तियाँ मन के भावोँ को यथावत ब्यक्त
करती है....


"मन तो मेरा भी करता है झूमूँ , नाचूँ, गाऊँ मैं
आजादी की स्वर्ण-जयंती वाले गीत सुनाऊँ मैं
लेकिन सरगम वाला वातावरण कहाँ से लाऊँमैं
मेघ-मल्हारों वाला अन्तयकरण कहाँ से लाऊँ मैं
मैं दामन में दर्द तुम्हारे, अपने लेकर बैठा हूँ
आजादी के टूटे-फूटे सपने लेकर बैठा हूँ ....."
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आज आजादी का दिन है लेकिन सही मायनोँ मेँ आजादी का दिन  मनाने के हकदार तभी  होँगेँ, जब  इसके लिए हम समय,अर्थ या और जो भी तरीका हो ऐसे लोगोँ की मदद
को अपने हाथ बढ़ायेंगें।
अंत मेँ मै आप सबके के कौशल औरप्रतिभा को प्रणाम करते हुए यही चाहूँगा कि आप देश हित मेँ स्वतः कुछ न कुछ अवश्य करें.....
श्री जयशंकर प्रसाद कृति "कामायनी" की कुछ पंक्तियाँ यहाँ सार्थक प्रतीत
होती है.....
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"शक्ति के विद्दुतकण जो व्यस्त
विकल बिखरे हैं, हो निरूपाय,
समन्वय उसका करे समस्त
विजयिनी मानवता हो जाय"।
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जय हिँद ! जय भारत!!

 

Friday, 13 June 2014

छुट्टियों के दिन.....



छुट्टियों के दिन.....




कोई हरियाली भरे खेतों और मिटटी की सड़कों वाले गाँव से आया है , कोई अपने जाने –पहचाने शहर से इस पराये शहर में आया है | बहुत सारी भिन्नताओं के बावजूद हर कोई अपने घर से आया है , वह घर जो अगरबत्ती की खुशबू और माँ के हाथ के गरमा-गरम पकवानों से महकता रहता है  , वह घर जो पापा के झुपे प्यार तले खुशहाल रहता है , वह घर जहाँ छुटकी से लड़ाईयां होती थी  ; हाँ वही रिमोट और मैगी वाली लड़ाईयां, वही घर जहाँ कभी –कभी  दोस्तों की मण्डली जम जाती थी वर्डकप देखने के लिए , वही घर जहाँ कभी –कभी थोड़ी बहुत डांट भी पड़ जाती थी |
मेरे जैसे कई दोस्तों ने पूरी प्लानिंग कर ली है ; इस महीने भर की छुटटी को कहाँ और कैसे और  किन-किन के साथ बिताना हैं | पापा के उस न्यूज़ वाले चैनल और बोरिंग वाले डिस्कशन से पीछा कैसे छुड़ाना हैं , माँ को दोस्तों के साथ मूवी जाने से पहले कैसे पटाना हैं , पापा और बड़े भैया से पैसे कैसे माँगना हैं |
मेरी एक साथी दोस्त नेहा ने बताया की उसने ये भी प्लान कर लिया है की भाभी और भैया से गिफ्ट कौन –कौन सा लेना है, अपनी पुरानी सहेलियों के साथ कहाँ –कहाँ घूमना कितनी सारी बातें बतानी हैं  है, माँ के कामों में हाथ भी बटाना है और छुट्टीयों के खत्म होने पर आते –आते पापा से शर्त कौन सी लगाना है |
सच है इतने दिनों के बाद घर जाने की ख़ुशी हर किसी को है पर दोस्तों को विदा करने के बाद जब अकेला रूम में बैठता हूँ तो एक अजीब सी तन्हाई घेर लेती हैं | बड़ा अजीब लगता है  !
घर जाने की ख़ुशी से थोड़ी देर पहले चेहरे पर उभरी मुस्कान अनकहे ही उदासी में बदल जाती है  | थोड़ी देर पहले मै ! जो कि न जाने कितने आने वाले पलों की कल्पना में गुम था अब बीते पलों की यादों और बातों में डूबने लगता हूँ |
वो हॉस्टल रूम वाली झड़पें , एक दूसरे से पार्टी लेने के छोटे –छोटे बहाने , वो सब मिल के किसी एक की उड़ाना , वो क्लास फ्रेंड्स के साथ हर रोज की मस्ती.. कभी कोल्ड ड्रिंक , तो कभी हॉट ड्रिंक वाली  अरे हाँ वही अपनी एनर्जी ड्रिंक “चाय” .... |
इस अनजान जगह पर अनजान लोगों के बीच चंद महीनों पहले ही आया था अब अनगिनत चेहरे अपने जाने-पहचाने अपने बन गए हैं | तो अपनों से दूर जाने थोड़ा तो दर्द होता ही है ; यही समझाता हूँ मै खुद को ......क्या पता ! दिल मान ही जाय |
दोस्तों वक्त का काम ही है गुजरना और गुजरते वक्त पर ही टिकी है जिन्दगी की गति | पर कभी कभी दिल नहीं मानता ...दिल चाहता है की क्यों न हमारे चहेते पल कुछ वक्त के लिए ठहर जायं |  वक्त  ठहरता नहीं पर ये अपने जाने के साथ कुछ एहसास छोड़ जाता है हम सबके के अंदर |
ऐसे एहसास जो अलग अलग हमारे दिलो में रहते हुए हमें एक दूसरे से बांधें रखतें हैं | इस एक साल के खूबसूरत सफ़र ने बहुत से जाने –अनजाने लोगों को एक दूसरे के करीब लाया | हमने एक दूसरे से न जाने कितनी चीजें सीखी | हाँ आज धन्यवाद नहीं कहूँगा .......वो कहते हैं न दोस्ती में नो थैंक्स , नो सॉरी लेकिन जाते- जाते थोड़ी सी गुजारिश जरुर करूँगा ........

अपने दिलो में एहसास जगाये रखना ,
अपने रिश्तों को यूँ ही बनाये रखना ;
वक्त का काम है चलना ये चलता रहेगा,
बस अपने चेहरों पर मुस्कराहट बनाये रखना |

At the end of 1st year
Dedicated to all my frndzzz………
-DEEPAK TRIPATHI