Friday, 15 August 2014

आजाद भारत ..मेरी बात.....


 

मेरी बात.....

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आज के शुभ अवसर पर सर्वप्रथम मैँ भारतभूमि और आसमान मेँ लहराते तिरँगेँ
को सहस्रो बार नत शीश से प्रणाम करता हूँ । आगे कुछ कहने से पूर्व मै उन भारतमाता के वीर सपूतोँ को तहेदिल से श्रद्धाँजंलि देते हुए सत्-सत् नमन करता जिनके अतुल्य
बलिदान के कारण आज हम आजाद साँसे जी रहे है..........


"है नमन उनको कि जो यशकाय को अमरत्व देकर,
इस जगत में शौर्य की जीवित कहानी हो गये है......
है नमन उनको कि जिनके सामने बौना हिमालय,
जो धरा पर गिर पडे पर आसमानी हो गये है...."
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दोस्तो आज आजाद भारत को 67 साल हो गये है लेकिन क्या इन सालो मे हमने सही आजादी हासिल की है? क्या देश की आजादी के लिए सर्वस्व बलिदान करने वाले वीर सपूतोँ का समानता ,एकता और एक स्वस्थशासनसत्ता का सपना पूरा हो रहा है?
शायद नहीँ।
देश की वर्तमान स्थिति पर दुष्यंतजी की कुछ पंक्तियाँ याद आती है....
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"मेरे चमन में कोई नशेमन नहीं रहा
या यूँ कहो कि बर्क़ की दहशत नहीं रही
हमको पता नहीं था हमें अब पता चला
इस मुल्क में हमारी हक़ूमत नहीं रही


 

हिम्मत से सच कहो तो बुरा मानते हैं लोग

रोरो के बात कहने की आदत नहीं रही....."
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हाँ! आजादी ने उपनिवेशवाद की विदाई का आधार तो जरुर तैयार किया किन्तु आज समाजवाद के तर्ज पर आजादी का लक्ष्य अभी भी अधूरा लगता है। इस तेज विकास और कथित आजादी ने अमीर और गरीब के बीच की असमानता की खाइयोँ को और गहरा कर
दिया है।
वर्तमान नेताओ(कुछ को छोड़कर) पर टिप्पणी शायद ब्यर्थ है।आज हर कोई इनकी तर्ज से वाकिब है। अपने एकाउंट्स और ऐशोआराम मे वृद्धि के लिए जनता की रोटी के साथ ये खेलते तो है ही साथ-साथ  जरुरत पड़ी ये उसे बेचने से
नहीँ चूकते......
धूमिल जी ने ठीक ही कहा है....


"
एक आदमी रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है , न रोटी खाता है
वह सिर्फ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूं -
यह तीसरा आदमी कौन है ?
मेरे देश की संसद मौन है ।"
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दोस्तो ! सोशल नेटवर्क्स या कहीं पर कुछ अच्छा राष्ट्र प्रेम से ओतप्रोत कुछ शब्द लिख देने या बोल देने मात्र हम देशप्रेमी और देश सही मायनो मेँ स्वतन्त्र
माना जाएगा..... जब तक कि देश मेँ लाखोँ लोग इलाज के अभाव मेँ दम तोड़ दे रहे
होँ...हर साल हजारोँ भूख से मर जाते होँ करोड़ो स्कूल तक न पहुँचते
होँ..लाखोँ बच्चे अपने परिवार का पेट पालने के लिए खेलने खाने की उम्र मेँ ढाबोँ और
दुकानोँ पर 1000-1200 की नौकरी कर रहे हैँ |
ऐसे मेँ हमे ये देखना है क्या हम इमानदारी से देश के प्रति अपने दायित्वोँ का निर्वहन कर रहे हैँ ?
कुछ पंक्तियाँ मन के भावोँ को यथावत ब्यक्त
करती है....


"मन तो मेरा भी करता है झूमूँ , नाचूँ, गाऊँ मैं
आजादी की स्वर्ण-जयंती वाले गीत सुनाऊँ मैं
लेकिन सरगम वाला वातावरण कहाँ से लाऊँमैं
मेघ-मल्हारों वाला अन्तयकरण कहाँ से लाऊँ मैं
मैं दामन में दर्द तुम्हारे, अपने लेकर बैठा हूँ
आजादी के टूटे-फूटे सपने लेकर बैठा हूँ ....."
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आज आजादी का दिन है लेकिन सही मायनोँ मेँ आजादी का दिन  मनाने के हकदार तभी  होँगेँ, जब  इसके लिए हम समय,अर्थ या और जो भी तरीका हो ऐसे लोगोँ की मदद
को अपने हाथ बढ़ायेंगें।
अंत मेँ मै आप सबके के कौशल औरप्रतिभा को प्रणाम करते हुए यही चाहूँगा कि आप देश हित मेँ स्वतः कुछ न कुछ अवश्य करें.....
श्री जयशंकर प्रसाद कृति "कामायनी" की कुछ पंक्तियाँ यहाँ सार्थक प्रतीत
होती है.....
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"शक्ति के विद्दुतकण जो व्यस्त
विकल बिखरे हैं, हो निरूपाय,
समन्वय उसका करे समस्त
विजयिनी मानवता हो जाय"।
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जय हिँद ! जय भारत!!

 

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