Sunday, 3 July 2022

जिसके पूरा होने का भरोसा ऐसा है ....जो कभी खत्म होने का नाम नहीं लेता ...

यह उस सफ़र जैसा है जो लगता है कि बस अगले कुछ ही दिनों में पूरा हो जाएगा लेकिन कुछ रोज चलकर बाहर देखो तो दिखता है कि अभी एक लंबी दूरी बची हुई है । कभी कभी तो इस बात का भी संशय होने लगता है कि हम सही दिशा में आगे बढ़ भी रहे हैं या नहीं । 
कितनी ही चीजों, इच्छाओं, आकांक्षाओं को उस एक मंज़िल के नाम पर , उस एक सफ़र के पूरा होने के बिनाह पर हम मन के किसी कोने में दबाते जाते हैं । कभी मन ऊबता है तो लालच देते हैं, सफ़र के पूरा होने की खुशी का। कभी मन बहकता है तो वापस उसे एक समयसीमा की डोर पकड़ा देते हैं । पर कभी कभी नकारात्मकता भी हावी होने लगती है जो याद दिलाती है उन असफलताओं की, ऊबते दिनों की, समझौते भरी रातों की । फिर भी ढेर सारी उलझनों के बीच हमें एक किनारा थाम के चलते तो रहना ही है ...क्योंकि एक सुबह जब चलना शुरू किया था तो पीछे एक अहम वजह थी । एक सपना देखा था । जो आज भी जेहन में जिंदा है और जिसके पूरा होने का भरोसा ऐसा है ....जो कभी खत्म होने का नाम नहीं लेता । 
~दीपक

Thursday, 7 April 2022

हाँ ! अब मैं तैयार हूं; पूरी तरह...

पाँचवा महीना चल रहा है । अब दिन ब दिन महसूस होने लगा है कि मेरे अंदर एक नन्हीं सी जान धीरे धीरे आकार ले रही है। मेरा अपना हिस्सा, मेरे खून और सासों के सहारे पलता और बढ़ता । ऊँघती दोपहरों और खाली शामों में अब काफी वक़्त ऐसा होता है जब मैं इस आने वाले भविष्य के बारे सोचते हुए बिताने लगी हूँ। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते जब इसके अस्तित्व के लिए मुझे कई दिन अस्पतालों के चक्कर काटने पड़े थे । पर यह ममत्व है या अपने अंश से गहरा जुड़ाव कि मैं किसी भी हद तक जाकर उसके अस्तित्व तो संजो लेना चाहती हूँ।
 
जैसे जैसे वक्त बीतता जा रहा एक और खयाल है जो अंदर अंदर कहीं न कहीं मुझे सोचने पर विवश करता करने लगा है । वही सवाल जिसका सामना शायद इस अवस्था में आकर  हर मध्यवर्गीय औरत किसी न किसी अनुपात में करती ज़रूर है । अभी कल ही की बात है अपनी पुरानी स्कूल वाली दोस्त मिल गयी थी । बात करते करते वह एकाएक बोल पड़ी "देखना इस बार तुम्हारा परिवार पूरा हो जायेगा, मैं कहे देती हूं" । मैंने उस वक़्त जवाब में कुछ कहा नहीं ,बस थोड़ा मुस्कुरा दी लेकिन एक सवाल ज़रूर अपने ज़ेहन में ढोने लगी ; सच में- लड़का या लड़की ? 
सच कहूँ तो अपनी 5 साल की छोटी सी बेटी की बातें सुनती हूँ तो कहीं न कहीं मैं भी यही चाहती हूँ कि इसकी अपने भाई के साथ रक्षाबंधन मनाने की ख़्वाहिश पूरी हो जाय । पर साथ ही साथ  कभी कभी एक डर भी उभर आता है कि अगर वह नहीं हुआ जो सब चाहते हैं तो ? बहुत सोचने पर कभी कभी मन करता है कि क्यूँ न कन्फर्म(diagnosis)  कर लिया जाय फिर अगले ही पल अपनी इस सोच पर पछतावा भी होने लगता है ।  मैं अपने ही शरीर के हिस्से,अपने अंश को लेकर इतना निर्दयी कैसे हो सकती हूं ? नहीं कुछ भी हो यह तो पूरी तरह गलत है, अन्याय है । 
आज सुबह  मैं छत पर बनाये छोटे से गार्डन में बैठी चाय पी रही थी । गर्मियां के दिन धीरे धीरे दस्तक़ दे रहे हैं । इसलिए सुबह की ठंडी हवा भी धीरे धीरे गर्म होने लगी है । गार्डन के एक कोने में टीन की शेड में एक कबूतर ने अंडे दे रखे है । मादा कबूतर अब दिन रात उसकी रखवाली में लगी रहती है । खयालों में डूबे मेरी नजऱ उस मादा कबूतर के ऊपर ठहर गयी । मैं सोचने लगी क्या इस बात से कुछ भी फर्क़ पड़ता है कि इस अंडे से पैदा होने वाली संतति का स्वरूप क्या होगा ? क्या एक माँ अपने ममत्व, लगाव या जुड़ाव में कोई भी अंतर महसूस करेगी ? बहुत सोचने पर भी मेरा उत्तर नकारात्मक रहा । मैंने अपने आप से एक सवाल किया ...फिर क्यूँ? क्यूँ अपने चेतन और अवचेतन मनःस्तर पर एक माँ इन अंतरों को अपने जेहन में पनपने दे, समाज के उपजाए इस झूठे अन्तरों को क्यूँ महत्व दे?  प्रकृति ने एक माँ के रूप में हमें अद्भुत क्षमताएं दी है। हम सक्षम है अपने जैसे एक नई संतति को पैदा करने में, अपने खुद के शरीर के खून,पानी और सासों से सींचकर एक नई पौध तैयार करने में । फिर क्यूँ सोचना ? क्यूँ ढोना समाज के थोपे अव्यहारिक बोझों को ?
हाँ ! अब मैं तैयार हूं, पूरी तरह; अपने आने वाले कल को स्वीकार करने  के लिए चाहे उसका स्वरूप कुछ भी हो । मैं तैयार हूँ; अपने नेह- छोह और असीम प्यार के साथ, स्वागत करने के लिए अपने आने वाले नन्हें सदस्य का ।  

~दीपक

Monday, 14 March 2022

हकीकत होते सपनें.....

उसकी छोटी छोटी शरारतों पर मै अक्सर चिढ़ती हूँ, गुस्सा करती हूं और कभी कभी झूठी ही सही रूठ कर दूर बैठ जाती हूँ। विशेषकर तब और जब वह मुझे अपनी पुरानी या वर्तमान महिला मित्रों की कहानियाँ सुनाता है । मुझे पता है इनमें से ज्यादातर कहानियां काल्पनिक और मुझे चिढ़ाने के उद्देश्यों से होती है फिर भी मैं उस समय अपने आपको समझा नहीं पाती । मैं चाहती हूँ कि मेरा-उसका; हमारा समय कोई और न बाँट पाए । सच कहूं तो उससे इस तरह रूठने में भी कभी कभी मुझे बड़ा मजा आता है । उसका मनाना फिर छोटे छोटे तोहफे लाना और कभी कभी माथे पर अपने होंठ रख देना; मुझे अंदर ही अंदर रोमांचित कर देता है । 
पता है पिछली बारिश एक रोज टहलते हुए हम दूर निकल गए । छाता एक ही था, वैसे हमारी ज्यादातर चीजें अब दो से एक हो गयी चुकी हैं, चाहे वह खाने की प्लेट हो, जूस पीने की स्ट्रॉ हो या ओढ़ने वाला कम्बल । उस रोज भी जब उसकी अठखेलियों से रुख कर मैं दूर बैठ गयी तो उसने चुपचाप छाता मेरी ओर कर दिया । देखो ! कितना चालाक है ...पता है कि इस तरह मैं भीगने तो दूंगी नहीं । तो ऐसे हैं जनाब । मुझे हर बार खींच लाते हैं ...अपने और करीब ।
ऐसी ही नटखट सी है हमारी कहानी ...चलती जा रही मील दर मील ...और हम जीते जा रहे ...हकीकत होते सपनों को ।

~दीपक

Monday, 31 January 2022

पापा; ख़्वाहिशें और जिम्मेदारियाँ....

बचपन से आज तक पापा को मैंने कई दफ़ा लाचार देखा है। कभी पारिवारिक मसलों में कभी आर्थिक मसलों में तो कभी व्यक्तिगत मसलों में । अपने अतीत की बातों में पापा अक्सर प्रारंभिक संयुक्त परिवार की कहानियां सुनाते हैं । जब पूरा कुनबा एक था, बाहर कमाने वाले कम और ज्यादातर निर्भरता खेती किसानी पर हुआ करती थी । बाबा प्राइमरी स्कूल में शिक्षक थे और जो सैलरी पाते उसे बड़ी सजगता और ईमानदारी से पूरे परिवार के खर्चों के लिए प्रयोग करते थे । पापा के मुँह से उन दिनों की बातें कभी गुदगुदाती है तो कभी आर्थिक मजबूरियों के चित्र दिखा जाती है । 
पापा की सुनाई एक कहानी बड़ी याद आती है । उन दिनों बाल विवाह का प्रचलन था इसलिए पापा की शादी भी कम उम्र में भी तय हो गयी । शादी तय हुई घर से कुछ किलोमीटर दूर जहां आस पास का एकमात्र इंटरकॉलेज होने की वजह से पापा वहीं पढ़ने भी जाते थे । आदेश हुआ कि बारात में जाने के लिए बनने वाले कपड़े के लिए सब तय दुकान पर नाप दे आएं। सब नाप देने जाने की तैयारी कर रहे थे और पापा थोड़ा सकुचा रहे थे । बड़ी हिम्मत करके उन्होंने बड़े पापा जो रिश्ते में पापा के चचेरे भाई लगते हैं, उनसे अपनी बात कही। इकलौते बेटे होने के बावजूद पापा, बाबा से अपनी एक छोटी सी बात नहीं कह पाए क्योंकि उस जमाने में बेटों को बाप से अपनी बातें कहने की हिम्मत कम ही हुआ करती थी । 

: "भैया सबके कपड़े एक जैसे बन रहे हैं,  मैं चाहता था शादी के मेरे कपड़े थोड़े अलग बन जाते, मेरे स्कूल के भी कई दोस्त शादी में आएंगे । आप पिता जी ये बात बोल देते ।"
: "ठीक है देखता हूँ । वैसे ऐसी भी क्या दिक्कत है, सब तो वहीं पहन रहे हैं ना ! और अलग कपड़े बनवाने के पैसे भी ज्यादा लगेंगे ।" 

नाप दिए गए । शादी के एक दिन पहले सबके कपड़े भी बनकर आ गए लेकिन पापा की वो छोटी सी ख़्वाहिश, ख़्वाहिश ही रह गयी । 
प्रारंभिक संयुक्त परिवार से अलग होने के बाद भी बाबा का जुड़ाव सबसे पूर्ववत बना रहा । एक दिन अपनी अस्वस्थता के कारण बाबा सारी जिम्मेदारियां पापा के कंधे छोड़ परलोक चले गए । कम उम्र में ही जिम्मेदारियों से पापा को ऐसे बांधा की फिर पापा अपनी ख़्वाहिशें भूल परिवार की जरूरतों में खो गए; बुआ की शादी फिर बहनों की पढ़ाई लिखाई और शादी विवाह । आज हम भाई बहनों की न जाने कितनों ख़्वाहिशें पूरा करने करने वाले पापा सुबह फ़ोन पर बता रहे थे कि डॉक्टरों का खर्च थोड़ा ज्यादा है । और अभी इतना जरूरी थोड़े है दांतों का इलाज या घुटनों के ऑपरेशन सब हो जाएगा, तुम बताओं पैसे वैसे तो हैं ना...कुछ चाहिए तो नहीं । 
~दीपक