अक्सर मुझे लगता है की मैं वक्त के साथ बँटता जा रहा हूँ , अनेकों हिस्सों में । कभी कभी मुझे डर लगता है कि मैं शायद इस जन्म में समूचा किसी का हो ही नहीं पाऊंगा । पता है जब तुम थी तो मैं पूरा था; अपनेआप में भी और तुम्हारे लिए भी लेकिन जब से तुम गयी, मेरे भीतर अधूरापन गहराता गया और किसी पूरेपन की तलाश में मैं बंटता गया। मुझे लगता है कि किसी का पूरा हो जाने के लिए उस पर पूरा विश्वास करना पड़ता है और अब मैं किसी पर पूरा विश्वास नहीं कर पाता हूँ शायद इसीलिये मैं समूचा किसी का हो नहीं पाया। ऐसा नहीं है कि मैंने फिर किसी से जुड़ने की कोशिश नहीं की पर जुड़ाव की कड़ी में फिर भरोसे की कमी आड़े आने लगती है और मेरा जुड़ाव पूर्ण समर्पण की बजाय एक औपचारिकता भर रह जाता है । जहां फिक्रमंदी तो होती है, थोड़े एहसास भी होते हैं लेकिन मैं वक्त नहीं देना चाहता और वक्त की कमी रिश्ते को नीरस बना देती है और एक नीरस रिश्ता धीरे धीरे बोझिल होता जाता है । कभी कभी मुझे लगता है कि अब मैं स्वार्थी और चालाक होता जा रहा हूँ । फायदे और नुकसान के गणित के सहारे मैं नए रिश्तों को तौलता रहता हूँ । अतीत की तलाश में यहां वहां भटकता रहता हूँ और बँटता रहता हूँ थोड़ा किसी के लिए ...तो थोड़ा किसी और के लिए ....
~दीपक
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