Sunday, 11 September 2016

अजनबी और अपने




उस अक्श को भुलाने की कोशिश मत करना
जो तुम्हे हौसला देता है
कुछ पल मुस्कुराने का
खुश रहने का
बेपरवाह होने का
जी भर के जीने का
बिछड़े खुद से मिलने का
आजाद होने का .........

उस अपने को अजनबी  न होने देना  
जो न होकर
भी पास रहता
याद बनकर
दिल के किसी कोने में
जो कभी साथ नही छोड़ता
धूप में परछाई की तरह
अंधियारें में उम्मीद की तरह
भरोसे की प्राचीर बनकर
डटा रहता है
आँधियों में 
तूफानों में
दुनियादारी की झंझावातों में
जो नही देखता तुममें
जाति को
धर्म को
रंग को
बस देखता है हर घड़ी
तुममें छिपे खुद को .....

~दीपक  

Sunday, 4 September 2016

“नेह-छोह” का अभाव




अपनेपन और परायेपन के बीच का फासला बड़ा लम्बा होता है | मै हर रोज कोशिश करता हूँ उसे उतना पराया बनाने की जितनी वो मेरी अपनी थी , पर अकेलेपन की तन्हाई में सारी  कोशिशों पर पानी फिर जाता है | नजदीक वो आती है या करीब मै जाता हूँ पता नही पर उसकी गैरमौजूदगी में भी उसे उतना पास से महसूस करता हूँ मै |
हवाएं चलती है , चलकर रुक जाती है ; पर ये बहाव नही रुकता | हारकर जिद्दी मन फिर से वजहें तलाशता है | ऐसी वो सारी  वजहें जो मजबूर करती है इस लम्बे फासले को तय करने की | वजह मेरा अहम् है या उसकी बेरुखी इस पर बहसे शुरू हो जाती है | तर्क –वितर्क , सवाल –जवाब |  मुकदमा चलता है , बस फैसले नही आते | सच ही  हैं बड़े से बड़े अभाव को इंसान आसानी से सह लेता है पर किसी के “नेह-छोह” का अभाव अन्दर ही अंदर हौसलों की दीवार को खोखला कर देता  है |  
~दीपक