Friday, 13 June 2014

छुट्टियों के दिन.....



छुट्टियों के दिन.....




कोई हरियाली भरे खेतों और मिटटी की सड़कों वाले गाँव से आया है , कोई अपने जाने –पहचाने शहर से इस पराये शहर में आया है | बहुत सारी भिन्नताओं के बावजूद हर कोई अपने घर से आया है , वह घर जो अगरबत्ती की खुशबू और माँ के हाथ के गरमा-गरम पकवानों से महकता रहता है  , वह घर जो पापा के झुपे प्यार तले खुशहाल रहता है , वह घर जहाँ छुटकी से लड़ाईयां होती थी  ; हाँ वही रिमोट और मैगी वाली लड़ाईयां, वही घर जहाँ कभी –कभी  दोस्तों की मण्डली जम जाती थी वर्डकप देखने के लिए , वही घर जहाँ कभी –कभी थोड़ी बहुत डांट भी पड़ जाती थी |
मेरे जैसे कई दोस्तों ने पूरी प्लानिंग कर ली है ; इस महीने भर की छुटटी को कहाँ और कैसे और  किन-किन के साथ बिताना हैं | पापा के उस न्यूज़ वाले चैनल और बोरिंग वाले डिस्कशन से पीछा कैसे छुड़ाना हैं , माँ को दोस्तों के साथ मूवी जाने से पहले कैसे पटाना हैं , पापा और बड़े भैया से पैसे कैसे माँगना हैं |
मेरी एक साथी दोस्त नेहा ने बताया की उसने ये भी प्लान कर लिया है की भाभी और भैया से गिफ्ट कौन –कौन सा लेना है, अपनी पुरानी सहेलियों के साथ कहाँ –कहाँ घूमना कितनी सारी बातें बतानी हैं  है, माँ के कामों में हाथ भी बटाना है और छुट्टीयों के खत्म होने पर आते –आते पापा से शर्त कौन सी लगाना है |
सच है इतने दिनों के बाद घर जाने की ख़ुशी हर किसी को है पर दोस्तों को विदा करने के बाद जब अकेला रूम में बैठता हूँ तो एक अजीब सी तन्हाई घेर लेती हैं | बड़ा अजीब लगता है  !
घर जाने की ख़ुशी से थोड़ी देर पहले चेहरे पर उभरी मुस्कान अनकहे ही उदासी में बदल जाती है  | थोड़ी देर पहले मै ! जो कि न जाने कितने आने वाले पलों की कल्पना में गुम था अब बीते पलों की यादों और बातों में डूबने लगता हूँ |
वो हॉस्टल रूम वाली झड़पें , एक दूसरे से पार्टी लेने के छोटे –छोटे बहाने , वो सब मिल के किसी एक की उड़ाना , वो क्लास फ्रेंड्स के साथ हर रोज की मस्ती.. कभी कोल्ड ड्रिंक , तो कभी हॉट ड्रिंक वाली  अरे हाँ वही अपनी एनर्जी ड्रिंक “चाय” .... |
इस अनजान जगह पर अनजान लोगों के बीच चंद महीनों पहले ही आया था अब अनगिनत चेहरे अपने जाने-पहचाने अपने बन गए हैं | तो अपनों से दूर जाने थोड़ा तो दर्द होता ही है ; यही समझाता हूँ मै खुद को ......क्या पता ! दिल मान ही जाय |
दोस्तों वक्त का काम ही है गुजरना और गुजरते वक्त पर ही टिकी है जिन्दगी की गति | पर कभी कभी दिल नहीं मानता ...दिल चाहता है की क्यों न हमारे चहेते पल कुछ वक्त के लिए ठहर जायं |  वक्त  ठहरता नहीं पर ये अपने जाने के साथ कुछ एहसास छोड़ जाता है हम सबके के अंदर |
ऐसे एहसास जो अलग अलग हमारे दिलो में रहते हुए हमें एक दूसरे से बांधें रखतें हैं | इस एक साल के खूबसूरत सफ़र ने बहुत से जाने –अनजाने लोगों को एक दूसरे के करीब लाया | हमने एक दूसरे से न जाने कितनी चीजें सीखी | हाँ आज धन्यवाद नहीं कहूँगा .......वो कहते हैं न दोस्ती में नो थैंक्स , नो सॉरी लेकिन जाते- जाते थोड़ी सी गुजारिश जरुर करूँगा ........

अपने दिलो में एहसास जगाये रखना ,
अपने रिश्तों को यूँ ही बनाये रखना ;
वक्त का काम है चलना ये चलता रहेगा,
बस अपने चेहरों पर मुस्कराहट बनाये रखना |

At the end of 1st year
Dedicated to all my frndzzz………
-DEEPAK TRIPATHI

Thursday, 12 June 2014

मलाई वाली बर्फ.......

मलाई वाली बर्फ.......





आ गए भैया गर्मी के दिन आ गए .......
अब लू भरी गर्म हवायें चलेंगी , अब बर्फ वाला गाँव में बर्फ बेचने आएगा , शहरी दोस्त मुझे माफ़ करें बचपन में हम जैसे  गाँव के बच्चों के लिए आइसक्रीम नहीं बल्कि बर्फ होती थी  रोमांचकारी चीज जो हर रोज अपनी मर्जी के मुताबिक नहीं बल्कि कभी –कभी खुशकिस्मती से ही मिलती थी |
50पैसे वाली लाल , 1रु वाली सफ़ेद गरी वाली और 2रु की आती थी मलाई वाली | दोपहर के सन्नाटे में जब घर के ज्यादातर बड़े कहीं पेड़ की छाँव में या कहीं घास –फूस की झोपड़ के नीचे आराम फरमा रहे होते , मम्मी लोग अपने रसोंइ के काम से मुक्त होकर कुछ और कर रही होती और हमारी टोली लूडो या वजीर –बादशाह-सिपाही-चोर में व्यस्त होती थी उसी समय अचानक से बर्फ वाले के भोपू की हल्की-हल्की आवाजें सुनाई देती तो पूरी टोली के कान खड़े हो जाते | ऐसे वक्त में खेल थोड़ी देर के लिए थम जाता| हर कोई अपने –अपने घर की तरफ भागता | कोई गुल्लकें टटोलता , कोई दादा ,दादी , मम्मी ,पापा , दीदी , भैया  से गुजारिश में जुट जाता | बूढ़े बड़े दादा जी तो कभी –कभी बर्फ वाले को गरिया (गाली) भी देते थे क्योंकि उसकी वजह से उनके नींद में विघ्न पड़ता था |
पापा सो रहे होते तो जगाने की हिम्मत न होती क्या पता कहीं डांट न पड़ जाये | मुझे याद है जब मै  जिद किया करता था  हर बार मलाई वाली यानि 2 रु वाली बर्फ खाने की | इस मामले में मै तेज था , हर बार मम्मी या दीदी को इमोशनली ब्लैकमेल करता और फाइनली दीदी मुझे 2 रु वाली दिला देती , खुद चाहे 50 पैसे वाली ही क्यूँ न खानी पड़े |मै इकलौता छोटा भाई जो ठहरा | कभी –कभी पैसे न होने पर अनाज के बदले भी बर्फ मिल जाती थी |
 कई दफा ऐसा भी होता कि चिल्लर की जुगत भिड़ाते-भिड़ाते बर्फ वाला जा चुका होता ; ऐसा वक्त बहुत ही दर्द भरा होता , कुदरत की इस विपदा के शिकार टोली के कई सदस्य तो रोने भी लगते | ऐसा लगता जैसे बहुत तैयारी के बावजूद एग्जाम का कोई पेपर देरी की वजह से छूट गया हो | फ़िलहाल थोड़ी डांट-डपट के बाद टोली वापस उसी लूडो और वजीर –बादशाह में व्यस्त और मस्त हो जाती |
बड़ा हुआ , बड़े शहर में पढ़ने आ गया ; दीदी भी अपने घर चली गयी ; अब यहाँ बड़े शहर में  बर्फ नहीं आइसक्रीम मिलती है या यूँ कहे की हम उसे सिर्फ इसी नाम से जानते हैं , जो 1 रु , 2 रु वाली नामों से नहीं बल्कि न जाने कितने अंग्रेजी वाले नामों से जानी जाती हैं |
आज इंजीनियरिंग कॉलेज के कैफ़े की सीढियों पर जब अपनी नयी मण्डली के साथ चोकोबार की मस्ती चल रही होती हैं तो कभी कभी बीते वक्त की वह बर्फ भी याद आ ही जाती है १रु वाली , २रु वाली और मलाई वाली .....................
-    दीपक त्रिपाठी

Sunday, 8 June 2014

अँधियारों के दीपक.......




अँधियारों के दीपक.......



वो गर्मी की शाम थी , लू भरी हवावों वाली | शाम के करीब 5 बजने को थे पर सूरज अब भी काफी जोशोखरोश से चमक रहा था |
मेरे कदम मेरे दो दोस्तों के साथ किसी अनजानी राह पर चले जा रहे थे | मुझे नहीं पता था की थोड़ी देर में  मै एहसासों के अजीब दौर से गुजरने वाला था , एहसास जो मेरे दिल में अपनी  ढेर सारी जगह बनाकर  मुझे रोमांचित करने वाले थे|
हाईवे से उतरकर , गंदे बहते नाले के बगल से , मक्खियों से भरी गलियों से होते हुए अब हम एक बस्ती के सामने थे ; बस्ती जिसमें टूटी फूटी कई सारी  झोपड़ियाँ थी | फटे –पुराने कपड़ों से बनी कुछ झुग्गियों में आर –पार दिखाई दे रहा था , कुछ घास –फूस  की छत अब सूरज की तपन और बारिश की बूदों  को रोकने पूरी तरह असमर्थ दिख रही थी |
मेर दोस्त ने  झुग्गियों के बीच गुजरते  हुए  आवाज लगाना शुरू किया “ कुंदन , रेखा , प्रकाश.......चलो बाबु कापियां निकालो , पढने चलना है.....चलो चलो”
धीरे –धीरे उत्तर में कई सारी कोमल आवाजे उभरने लगी “ओके भैया”.....”एस भैया” ....”आ रहे है भैया”|
माहौल में कुछ औरतों की भी आवाज थी “जाओ रे रेखा भैया लोग पढ़ाने आये हैं”  | मै स्तब्ध सा अपने दोस्त के साथ-साथ चल रहा था |
देखते –देखते हम करीब 10-12 नन्हे क़दमों के सहारे खड़े , नन्हे कोमल हाथों में कापियां और पेन्सिल  थामे , गोल –मटोल छोटी आँखों के सामने थे | थोड़ी देर में मै अपने इंजीनियरिंग कॉलेज में दोस्तों के साथ की मस्तियों और हाईवे की  चहल –पहल को पूरी तरह भूल सा गया था | मेरी नज़रें  फटे –पुराने कपड़ों में लिपटे बच्चों के मासूम चेहरों पर टिक सी गयी थी | उनके आँखों की चमक मुझे अपनी तरफ आकर्षित कर रही थी | उन आँखों की चमक देख मुझे अपने बचपन के दिन याद आ गये जब माँ ने सजा-धजा के पहली बार मुझे स्कूल भेजा था | पर अफ़सोस इन नन्हे-मुन्हो के नसीब में अभी स्कूल नहीं थे |            
मेरा  दोस्त उनमें से एक की तरफ देखते हुए बोला “ प्रकाश उस दिन तुम चटाई लाये थे न , जाओ आज  फिर ले आओ”
 “वो तो झुग्गी में लग गयी भैया आज धूप ज्यादा लग रही थी” इस मासूम सी आवाज में कुछ निराशा थी | न जाने क्यूँ मै कांप गया , जैसे एक बिजली दौड़ गयी हो मेरे पूरे शरीर में , मेरे रोंगटे खड़े हो गये | ये वही देश है जहाँ बच्चों के  पढ़ने –लिखने, उनके खुशियों के लिए न जाने कितने फिजूलखर्चे किये जाते  है , और यहीं पर कुछ ऐसे भी बच्चे है जिन्हें स्कूल तो नसीब नहीं बल्कि उनकी अन्य आवश्यकताओं की भी पूर्ति नहीं हो पाती है |
हमने पढ़ाना शुरू किया कुछ को गिनतियाँ (tables) सिखाई , कुछ को A-Z सिखाया , कुछ को जोड़ना , कुछ को घटाना सिखाया | मै बड़ा खुश था बच्चे चीजो को बड़ी जल्दी सीख और समझ रहे थे जैसे उनमे भूख थी चीजो को सीखने की ,उनमे आपस में एक अजीब सा कैम्पटीशन था चीजो सबसे पहले करके दिखाने का | फिर होमवर्क दिए गए | अब हम  चलने को थे | बच्चें हाथ हिलाकर “बाय” कहते हुए जाने लगे | मेरी  नज़रें अब भी उनकी मासूम आँखों पर टिकी  थे जाते जाते वो मुझसे न जाने कितने सवाल कर रहे थे |
क्या हमारे लिए इस देश में रोटी, घर और शिक्षा नहीं है ? क्या हमारा यही  दोष  है यही कि  “हम  गरीब घर में पैदा हुए हैं , हमारे माँ-बाप अशिक्षित है” |
सारे सवालों का जवाब देने में तो मै असमर्थ हूँ पर एक सवाल करता हूँ मै आप सबसे क्या हम इतना भी नहीं कर सकते जिससे इन मासूमों में शिक्षा रुपी ज्योति जल सके और अन्धेरें में डूबी इन बस्तियों को  रौशनी फैलाने वाले कुछ दीपक मिल सके |
तहे दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ उनका जिन्होंने हमें ये रास्ता दिखाया , जिन्होंने हमें हौसला और मौका  दिया कुछ बेबस , उदास चेहरों पर ढेर सारी खुशियाँ और कुछ सूखे होठों पर खिलखिलाती मुस्कान बिखेरने का ............
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(dedicated to NGO “HUSC”)
…………दीपक