Thursday, 7 April 2022

हाँ ! अब मैं तैयार हूं; पूरी तरह...

पाँचवा महीना चल रहा है । अब दिन ब दिन महसूस होने लगा है कि मेरे अंदर एक नन्हीं सी जान धीरे धीरे आकार ले रही है। मेरा अपना हिस्सा, मेरे खून और सासों के सहारे पलता और बढ़ता । ऊँघती दोपहरों और खाली शामों में अब काफी वक़्त ऐसा होता है जब मैं इस आने वाले भविष्य के बारे सोचते हुए बिताने लगी हूँ। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते जब इसके अस्तित्व के लिए मुझे कई दिन अस्पतालों के चक्कर काटने पड़े थे । पर यह ममत्व है या अपने अंश से गहरा जुड़ाव कि मैं किसी भी हद तक जाकर उसके अस्तित्व तो संजो लेना चाहती हूँ।
 
जैसे जैसे वक्त बीतता जा रहा एक और खयाल है जो अंदर अंदर कहीं न कहीं मुझे सोचने पर विवश करता करने लगा है । वही सवाल जिसका सामना शायद इस अवस्था में आकर  हर मध्यवर्गीय औरत किसी न किसी अनुपात में करती ज़रूर है । अभी कल ही की बात है अपनी पुरानी स्कूल वाली दोस्त मिल गयी थी । बात करते करते वह एकाएक बोल पड़ी "देखना इस बार तुम्हारा परिवार पूरा हो जायेगा, मैं कहे देती हूं" । मैंने उस वक़्त जवाब में कुछ कहा नहीं ,बस थोड़ा मुस्कुरा दी लेकिन एक सवाल ज़रूर अपने ज़ेहन में ढोने लगी ; सच में- लड़का या लड़की ? 
सच कहूँ तो अपनी 5 साल की छोटी सी बेटी की बातें सुनती हूँ तो कहीं न कहीं मैं भी यही चाहती हूँ कि इसकी अपने भाई के साथ रक्षाबंधन मनाने की ख़्वाहिश पूरी हो जाय । पर साथ ही साथ  कभी कभी एक डर भी उभर आता है कि अगर वह नहीं हुआ जो सब चाहते हैं तो ? बहुत सोचने पर कभी कभी मन करता है कि क्यूँ न कन्फर्म(diagnosis)  कर लिया जाय फिर अगले ही पल अपनी इस सोच पर पछतावा भी होने लगता है ।  मैं अपने ही शरीर के हिस्से,अपने अंश को लेकर इतना निर्दयी कैसे हो सकती हूं ? नहीं कुछ भी हो यह तो पूरी तरह गलत है, अन्याय है । 
आज सुबह  मैं छत पर बनाये छोटे से गार्डन में बैठी चाय पी रही थी । गर्मियां के दिन धीरे धीरे दस्तक़ दे रहे हैं । इसलिए सुबह की ठंडी हवा भी धीरे धीरे गर्म होने लगी है । गार्डन के एक कोने में टीन की शेड में एक कबूतर ने अंडे दे रखे है । मादा कबूतर अब दिन रात उसकी रखवाली में लगी रहती है । खयालों में डूबे मेरी नजऱ उस मादा कबूतर के ऊपर ठहर गयी । मैं सोचने लगी क्या इस बात से कुछ भी फर्क़ पड़ता है कि इस अंडे से पैदा होने वाली संतति का स्वरूप क्या होगा ? क्या एक माँ अपने ममत्व, लगाव या जुड़ाव में कोई भी अंतर महसूस करेगी ? बहुत सोचने पर भी मेरा उत्तर नकारात्मक रहा । मैंने अपने आप से एक सवाल किया ...फिर क्यूँ? क्यूँ अपने चेतन और अवचेतन मनःस्तर पर एक माँ इन अंतरों को अपने जेहन में पनपने दे, समाज के उपजाए इस झूठे अन्तरों को क्यूँ महत्व दे?  प्रकृति ने एक माँ के रूप में हमें अद्भुत क्षमताएं दी है। हम सक्षम है अपने जैसे एक नई संतति को पैदा करने में, अपने खुद के शरीर के खून,पानी और सासों से सींचकर एक नई पौध तैयार करने में । फिर क्यूँ सोचना ? क्यूँ ढोना समाज के थोपे अव्यहारिक बोझों को ?
हाँ ! अब मैं तैयार हूं, पूरी तरह; अपने आने वाले कल को स्वीकार करने  के लिए चाहे उसका स्वरूप कुछ भी हो । मैं तैयार हूँ; अपने नेह- छोह और असीम प्यार के साथ, स्वागत करने के लिए अपने आने वाले नन्हें सदस्य का ।  

~दीपक