Thursday, 10 September 2020

पहाड़ों से कुछ मांगों तो वो मिल जाता है न?

यह मसूरी में हमारा तीसरा दिन था । बिना किसी को बताए या यूं कहूँ कि अपनी वो रोज रोज वाली दुनिया से दूर हम बादलों के बीच थोड़े वक्त के लिए भटकने चले आये थे । वास्तव में ये आईडिया उसका ही था । हम अब तक वीकेंड्स पर दिल्ली के कोने कोने घूम लेने के बाद मुगलों और बाद में ब्रिटिश के बसाये इस शहर से ऊब से गए थे ।
ठंडी ठंडी हवाओं का सहारा लिए बादल उड़ते जा रहे थे । मौसम की खुशमिजाज़ी ऐसी थी कि किसी को भी अपने आकर्षण में बांध सकती थी ।
सुबह से ही आज वह बड़ी शांत लग थी । उसकी चंचल आँखें बड़ी देर ठिठकी पहाड़ों के उस पार ताक रही थी । अचानक वह बोली
: "पहाड़ों से कुछ मांगों तो वो मिल जाता है न? "
: "हाँ शायद ।" मैंने थोड़ी बेपरवाही में जवाब दिया । "लेकिन चुप होकर नहीं चिल्ला कर मांगना पड़ता है" मैंने उसे छेड़ने के अंदाज़ में यूं ही बोल दिया ।
: "क्यूँ ...ये तो इतने विशाल हैं ..क्या ये हमारे मन की बातें नहीं सुन पाते ?"
: "जी ...नहीं ...ये उन्हीं आवाजों को सुनते हैं जो इन तक पहुँच पाती है ...और फिर उन्हीं ख्वाहिशों को पूरा भी करते हैं जिनमें इन्हें सच्चाई और ईमानदारी दिखती है ।" मैंने एक बच्चे को समझाने के अंदाज़ में जवाब दिया ।
उसने आगे कुछ पूछा नहीं, बस पहाड़ों को ताकती रही। ऐसा लग रहा था जैसे पिछली रात देखा कोई ख़्वाब उसकी आँखों में उतर आया था और वह इन ख्वाबों को इन विशाल पहाड़ों को सौंपकर एक उम्मीद के सहारे बाकी की ज़िंदगी खुश और बेपरवाह रहना चाहती थी ....