Thursday, 6 April 2017

जिन्दा लाशों का सच


हर सुबह जिन्दा लाशों
की बिखरी फ़ौजें
निकल पड़ती है
कुछ निवालों के खतिर
तो कुछ चंद सिक्कों की आस में
ये लाशें दिन भर भटकती है
अपने आप से लड़ती है
कभी आस्तित्व के लिए
कभी होने की वजह के लिए
ये ढूंढती है कुछ लम्हे ,कुछ साथ
जहाँ
ये पूरी तरह जीवित हो जाती है
फिर दिन भर बना रहता है
ये जीवित होने का झूठ
एक जाल की तरह
जिसमें कई परतें है
धन,परिवार, रिश्ते,धर्म
और मोह-माया का हर अंश
शाम ढलते ही
जब अँधेरा गहराता है
जब भागते कदमों की रफ्तार
थमने लगती है
तब नींद का आगोश
वापस
वापस जिन्दा लाश को
उसका सच याद दिलाता है
एक अधूरा सच
जो अगली सुबह
झूठ के आगोश में
कहीं गुम हो जाता है
आने वाले अंधकार तक के लिये.....
 
~दीपक